आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
एक क़तरा अश्क का छलका तो दरिया कर दिया आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
एक क़तरा अश्क का छलका तो दरिया कर दिया
एक मुश्त-ए-ख़ाक जो बिखरी तो सहरा कर दिया
मेरे टूटे हौसले के पर निकलते देख कर
उस ने दीवारों को अपनी और ऊँचा कर दिया
वारदात-ए-क़ल्ब लिक्खी हम ने फ़र्ज़ी नाम से
और हाथों-हाथ उस को ख़ुद ही ले जा कर दिया
उस की नाराज़ी का सूरज जब सवा नेज़े पे था
अपने हर्फ़-ए-इज्ज़ ही ने सर पे साया कर दिया
दुनिया भर की ख़ाक कोई छानता फिरता है अब
आप ने दर से उठा कर कैसा रुस्वा कर दिया
अब न कोई ख़ौफ़ दिल में और न आँखों में उम्मीद
तू ने मर्ग-ए-ना-गहाँ बीमार अच्छा कर दिया
भूल जा ये कल तिरे नक़्श-ए-क़दम थे चाँद पर
देख उन हाथों को किस ने आज कासा कर दिया
हम तो कहने जा रहे थे हम्ज़ा-ये-वस्सलाम
बीच में उस ने अचानक नून-ग़ुन्ना कर दिया
हम को गाली के लिए भी लब हिला सकते नहीं
ग़ैर को बोसा दिया तो मुँह से दिखला कर दिया
तीरगी की भी कोई हद होती है आख़िर मियाँ
सुर्ख़ परचम को जला कर ही उजाला कर दिया
बज़्म में अहल-ए-सुख़न तक़्ती फ़रमाते रहे
और हम ने अपने दिल का बोझ हल्का कर दिया
जाने किस के मुंतज़िर बैठे हैं झाड़ू फेर कर
दिल से हर ख़्वाहिश को 'आदिल' हम ने चलता कर दिया
इबलाग़ के बदन में तजस्सुस का सिलसिला आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
इबलाग़ के बदन में तजस्सुस का सिलसिला
टूटा है चश्म-ए-ख़्वाब में हैरत का आइना
जो आसमान बन के मुसल्लत सरों पे था
किस ने उसे ज़मीन के अंदर धँसा दिया
बिखरी हैं पीली रेत पे सूरज की हड्डियाँ
ज़र्रों के इंतिज़ार में लम्हों का झूमना
एहराम टूटते हैं कहाँ संग-ए-वक़्त के
सहरा की तिश्नगी में अबुल-हौल हँस पड़ा
उँगली से उस के जिस्म पे लिक्खा उसी का नाम
फिर बत्ती बंद कर के उसे ढूँडता रहा
शिरयानें खिंच के टूट न जाएँ तनाव से
मिट्टी पे खुल न जाए ये दरवाज़ा ख़ून का
मौजें थीं शो'लगी के समुंदर में तुंद-ओ-तेज़
मैं रात भर उभरता रहा डूबता रहा
अल्फ़ाज़ की रगों से मुआ'नी निचोड़ ले
फ़ासिद मवाद काग़ज़ी घोड़े पे डाल आ
आशिक़ थे शहर में जो पुराने शराब के आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
आशिक़ थे शहर में जो पुराने शराब के
हैं उन के दिल में वसवसे अब एहतिसाब के
वो जो तुम्हारे हाथ से आ कर निकल गया
हम भी क़तील हैं उसी ख़ाना-ख़राब के
फूलों की सेज पर ज़रा आराम क्या किया
उस गुल-बदन पे नक़्श उठ आए गुलाब के
सोए तो दिल में एक जहाँ जागने लगा
जागे तो अपनी आँख में जाले थे ख़्वाब के
बस तिश्नगी की आँख से देखा करो उन्हें
दरिया रवाँ-दवाँ हैं चमकते सराब के
ओकाड़ा इतनी दूर न होता तो एक दिन
भर लाते साँस साँस में गुल आफ़्ताब के
किस तरह जमा कीजिए अब अपने आप को
काग़ज़ बिखर रहे हैं पुरानी किताब के
अब टूटने ही वाला है तन्हाई का हिसार आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
अब टूटने ही वाला है तन्हाई का हिसार
इक शख़्स चीख़ता है समुंदर के आर-पार
आँखों से राह निकली है तहतुश-शुऊर तक
रग रग में रेंगता है सुलगता हुआ ख़ुमार
गिरते रहे नुजूम अंधेरे की ज़ुल्फ़ से
शब भर रहीं ख़मोशियाँ सायों से हम-कनार
दीवार ओ दर पे ख़ुशबू के हाले बिखर गए
तन्हाई के फ़रिश्तों ने चूमी क़बा-ए-यार
कब तक पड़े रहोगे हवाओं के हाथ में
कब तक चलेगा खोखले शब्दों का कारोबार
कौन था वो ख़्वाब के मल्बूस में लिपटा हुआ आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
कौन था वो ख़्वाब के मल्बूस में लिपटा हुआ
रात के गुम्बद से टकरा कर पलट आई सदा
मैं तो था बिखरा हुआ साहिल की पीली रेत पर
और दरिया में था नीला आसमाँ डूबा हुआ
सोच की सूखी हुई शाख़ों से मुरझाए हुए
टूट कर गिरते हुए लफ़्ज़ों को मैं चिंता रहा
जब भी ख़ुद की खोज में निकला हूँ अपने जिस्म से
काली तन्हाई के जंगल से गुज़रना ही पड़ा
फैलता जाता है ठंडी चाँदनी के साथ साथ
शो'ला शो'ला लज़्ज़तों की तिश्नगी का दायरा
गाँठी है उस ने दोस्ती इक पेश-इमाम से आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
गाँठी है उस ने दोस्ती इक पेश-इमाम से
'आदिल' उठा लो हाथ दुआ-ओ-सलाम से
पानी ने रास्ता न दिया जान-बूझ कर
ग़ोते लगाए फिर भी रहे तिश्ना-काम से
मैं उस गली से सर को झुकाए गुज़र गया
चिलगोज़े फेंकती रही वो मुझ पे बाम से
वो कौन था जो दिन के उजाले में खो गया
ये चाँद किस को ढूँडने निकला है शाम से
कोने में बादशाह पड़ा ऊँघता रहा
टेबल पे रात कट गई बेगम ग़ुलाम से
नश्शा सा डोलता है तिरे अंग अंग पर
जैसे अभी भिगो के निकाला हो जाम से
घूम रहा था एक शख़्स रात के ख़ारज़ार में आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
घूम रहा था एक शख़्स रात के ख़ारज़ार में
उस का लहू भी मर गया सुब्ह के इंतिज़ार में
रूह की ख़ुश्क पत्तियाँ शाख़ से टूटती रहीं
और घटा बरस गई जिस्म के रेगज़ार में
रंग में रंग घुल गए अक्स के शीशे धुल गए
क़ौस-ए-क़ुज़ह पिघल गई भीगी हुई लगार में
ठंडी सड़क थी बे-ख़बर गर्म दिनों के क़हर से
धूप को झेलते रहे पेड़ खड़े क़तार में
बहती हवा की मौज में तैर रहे थे सब्ज़ घर
शहर अजीब सा लगा रात चढ़े ख़ुमार में
नींद भी जागती रही पूरे हुए न ख़्वाब भी
सुब्ह हुई ज़मीन पर रात ढली मज़ार में
देता जवाब क्या कोई मेरे सिवा न था कोई
डूब के रह गई सदा तंग सियाह ग़ार में
चारों तरफ़ से मौत ने घेरा है ज़ीस्त को आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
चारों तरफ़ से मौत ने घेरा है ज़ीस्त को
और उस के साथ हुक्म कि अब ज़िंदगी करो
बाहर गली में शोर है बरसात का सुनो
कुंडी लगा के आज तो घर में पड़े रहो
छोड़ आए किस की छत पे जवाँ-साल चाँद को
ख़ामोश किस लिए हो सितारो जवाब दो
क्यूँ चलते चलते रुक गए वीरान रास्तो
तन्हा हूँ आज मैं ज़रा घर तक तो साथ दो
जिस ने भी मुड़ के देखा वो पत्थर का हो गया
नज़रें झुकाए दोस्तो चुप चुप चले चलो
अल्लाह रक्खे तेरी सहर जैसी कम-सिनी
दिल काँपता है जब भी तू आती है शाम को
वीराँ चमन पे रोई है शबनम तमाम रात
ऐसे में कोई नन्ही कली मुस्कुराए तो
'आदिल' हवाएँ कब से भी देती हैं दस्तकें
जल्दी से उठ के कमरे का दरवाज़ा खोल दो
चेहरे पे चमचमाती हुई धूप मर गई आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
चेहरे पे चमचमाती हुई धूप मर गई
सूरज को ढलता देख के फिर शाम डर गई
मबहूत से खड़े रहे सब बस की लाइन में
कूल्हे उछालती हुई बिजली गुज़र गई
सूरज वही था धूप वही शहर भी वही
क्या चीज़ थी जो जिस्म के अंदर ठिठर गई
ख़्वाहिश सुखाने रक्खी थी कोठे पे दोपहर
अब शाम हो चली मियाँ देखो किधर गई
तहलील हो गई है हवा में उदासियाँ
ख़ाली जगह जो रह गई तन्हाई भर गई
चेहरे बग़ैर निकला था उस के मकान से
रुस्वाइयों की हद से भी आगे ख़बर गई
रंगों की सुर्ख़ नाफ़ दाखिल्या गुल-आफ़ताब
अंधी हवाएँ ख़ार खटक कान भर गई
ज़मीं छोड़ कर मैं किधर जाऊँगा आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
ज़मीं छोड़ कर मैं किधर जाऊँगा
अँधेरों के अंदर उतर जाऊँगा
मिरी पतियाँ सारी सूखी हुईं
नए मौसमों में बिखर जाऊँगा
अगर आ गया आइना सामने
तो अपने ही चेहरे से डर जाऊँगा
वो इक आँख जो मेरी अपनी भी है
न आई नज़र तो किधर जाऊँगा
वो इक शख़्स आवाज़ देगा अगर
मैं ख़ाली सड़क पर ठहर जाऊँगा
पलट कर न पाया किसी को अगर
तो अपनी ही आहट से डर जाऊँगा
तिरी ज़ात में साँस ली है सदा
तुझे छोड़ कर मैं किधर जाऊँगा
दरवाज़ा बंद देख के मेरे मकान का आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
दरवाज़ा बंद देख के मेरे मकान का
झोंका हवा का खिड़की के पर्दे हिला गया
वो जान-ए-नौ-बहार जिधर से गुज़र गया
पेड़ों ने फूल पत्तों से रस्ता छुपा लिया
उस के क़रीब जाने का अंजाम ये हुआ
मैं अपने-आप से भी बहुत दूर जा पड़ा
अंगड़ाई ले रही थी गुलिस्ताँ में जब बहार
हर फूल अपने रंग की आतिश में जल गया
काँटे से टूटते हैं मेरे अंग अंग में
रग रग में चाँद जलता हुआ ज़हर भर गया
आँखों ने उस को देखा नहीं इस के बावजूद
दिल उस की याद से कभी ग़ाफ़िल नहीं रहा
दरवाज़ा खटखटा के सितारे चले गए
ख़्वाबों की शाल ओढ़ के मैं ऊँघता रहा
शब चाँदनी की आँच में तप कर निखर गई
सूरज की जलती आग में दिन ख़ाक हो गया
सड़कें तमाम धूप से अँगारा हो गईं
अंधी हवाएँ चलती हैं इन पर बरहना-पा
वो आए थोड़ी देर रुके और चले गए
'आदिल' मैं सर झुकाए हुए चुप खड़ा रहा
जीता है सिर्फ़ तेरे लिए कौन मर के देख आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
जीता है सिर्फ़ तेरे लिए कौन मर के देख
इक रोज़ मेरी जान ये हरकत भी कर के देख
मंज़िल यहीं है आम के पेड़ों की छाँव में
ऐ शहसवार घोड़े से नीचे उतर के देख
टूटे पड़े हैं कितने उजालों के उस्तुख़्वाँ
साया-नुमा अंधेरे के अंदर उतर के देख
फूलों की तंग-दामनी का तज़्किरा न कर
ख़ुशबू की तरह मौज-ए-सबा में बिखर के देख
तुझ पर खुलेंगे मौत की सरहद के रास्ते
हिम्मत अगर है उस की गली से गुज़र के देख
दरिया की वुसअतों से उसे नापते नहीं
तन्हाई कितनी गहरी है इक जाम भर के देख
न कोई रोक सका ख़्वाब के सफ़ीरों को आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
न कोई रोक सका ख़्वाब के सफ़ीरों को
उदास कर गए नींदों के राहगीरों को
वो मौज बन के उठी याद के समुंदर से
तबाह कर गई तन्हाई के जज़ीरों को
लरज़ के टूट गईं हफ़्त-रंग दीवारें
हवा चली तो रिहाई मिली असीरों को
दफ़ीने पाँव तले से गुज़र गए कितने
मैं देखता ही रहा हाथ में लकीरों को
पानी को पत्थर कहते हैं आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
पानी को पत्थर कहते हैं
क्या कुछ दीदा-वर कहते हैं
ख़ुश-फ़हमी की हद होती हैं
ख़ुद को दानिश-वर कहते हैं
कौन लगी-लिपटी रखता है
हम तेरे मुँह पर कहते हैं
ठीक ही कहते होंगे फिर तो
जब ये प्रोफ़ेसर कहते हैं
सब उन को अंदर समझे थे
वो ख़ुद को बाहर कहते हैं
तेरा इस में क्या जाता है
अपने खंडर को घर कहते हैं
नज़्म समझ में कब आती है
देख इस को मंतर कहते हैं
फिर किसी ख़्वाब के पर्दे से पुकारा जाऊँ आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
फिर किसी ख़्वाब के पर्दे से पुकारा जाऊँ
फिर किसी याद की तलवार से मारा जाऊँ
फिर कोई वुसअत-ए-आफ़ाक़ पे साया डाले
फिर किसी आँख के नुक़्ते में उतारा जाऊँ
दिन के हंगामों में दामन कहीं मैला हो जाए
रात की नुक़रई आतिश में निखारा जाऊँ
ख़ुश्क खोए हुए गुमनाम जज़ीरे की तरह
दर्द के काले समुंदर से उभारा जाऊँ
अपनी खोई हुई जन्नत का तलबगार बनूँ
दस्त-ए-यज़्दाँ से गुनहगार सँवारा जाऊँ
फैले हुए हैं शहर में साए निढाल से आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
फैले हुए हैं शहर में साए निढाल से
जाएँ कहाँ निकल के ख़यालों के जाल से
मशरिक़ से मेरा रास्ता मग़रिब की सम्त था
उस का सफ़र जुनूब की जानिब शुमाल से
कैसा भी तल्ख़ ज़िक्र हो कैसी भी तुर्श बात
उन की समझ में आएगी गुल की मिसाल से
चुप-चाप बैठे रहते हैं कुछ बोलते नहीं
बच्चे बिगड़ गए हैं बहुत देख-भाल से
रंगों को बहते देखिए कमरे के फ़र्श पर
किरनों के वार रोकिए शीशे की ढाल से
आँखों में आँसुओं का कहीं नाम तक नहीं
अब जूते साफ़ कीजिए उन के रुमाल से
चेहरा बुझा बुझा सा परेशान ज़ुल्फ़ ज़ुल्फ़
अल्लाह दुश्मनों को बचाए वबाल से
फिर पानियों में नुक़रई साए उतर गए
फिर रात जगमगा उठी चाँदी के थाल से
बदन पर नई फ़स्ल आने लगी आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
बदन पर नई फ़स्ल आने लगी
हवा दिल में ख़्वाहिश जगाने लगी
कोई ख़ुद-कुशी की तरफ़ चल दिया
उदासी की मेहनत ठिकाने लगी
जो चुप-चाप रहती थी दीवार पर
वो तस्वीर बातें बनाने लगी
ख़यालों के तारीक खंडरात में
ख़मोशी ग़ज़ल गुनगुनाने लगी
ज़रा देर बैठे थे तन्हाई में
तिरी याद आँखें दुखाने लगी
बिस्मिल के तड़पने की अदाओं में नशा था आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
बिस्मिल के तड़पने की अदाओं में नशा था
मैं हाथ में तलवार लिए झूम रहा था
घूँघट में मिरे ख़्वाब की ताबीर छुपी थी
मेहंदी से हथेली में मिरा नाम लिखा था
लब थे कि किसी प्याली के होंटों पे झुके थे
और हाथ कहीं गर्दन-ए-मीना में पड़ा था
हम्माम के आईने में शब डूब रही थी
सिगरेट से नए दिन का धुआँ फैल रहा था
दरिया के किनारे पे मिरी लाश पड़ी थी
और पानी की तह में वो मुझे ढूँढ रहा था
मालूम नहीं फिर वो कहाँ छुप गया 'आदिल'
साया सा कोई लम्स की सरहद पे मिला था
मुझे पसंद नहीं ऐसे कारोबार में हूँ आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
मुझे पसंद नहीं ऐसे कारोबार में हूँये जब्र है कि मैं ख़ुद अपने इख़्तियार में हूँ
हुदूद-ए-वक़्त से बाहर अजब हिसार में हूँ
मैं एक लम्हा हूँ सदियों के इंतिज़ार में हूँ
अभी न कर मिरी तश्कील मुझ को नाम न दे
तिरे वजूद से बाहर में किस शुमार में हूँ
मैं एक ज़र्रा मिरी हैसियत ही क्या है मगर
हवा के साथ हूँ उड़ते हुए ग़ुबार में हूँ
बस आस-पास ये सूरज है और कुछ भी नहीं
महक रहा तो हूँ लेकिन मैं रेगज़ार में हूँ
ये फैलती शिकस्तगी एहसास की तरफ़ आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
ये फैलती शिकस्तगी एहसास की तरफ़
दरिया रवाँ-दवाँ हैं मिरी प्यास की तरफ़
उस का बदन झुका हुआ पत्थर की बीच पर
अपने क़दम भी मुड़ते हुए घास की तरफ़
दिखला रही है धूप बशाशत का आईना
और छाँव खींचती है मुझे यास की तरफ़
अशिया की लज़्ज़तों में अटकता हुआ बदन
और रूह का खिंचाव है बन-बास की तरफ़
सब ये समझ रहे थे कि निरवान मिल गया
चकरा रही है चील मगर मास की तरफ़
वो तुम तक कैसे आता आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
वो तुम तक कैसे आता
जिस्म से भारी साया था
सारे कमरे ख़ाली थे
सड़कों पर भी कोई न था
पीछे पीछे क्यूँ आए
आगे भी तो रस्ता था
खिड़की ही में ठिठुर गई
काली और चौकोर हवा
दीवारों पर आईने
आईनों में सब्ज़ ख़ला
बैठी थी वो कुर्सी पर
दाँतों में उँगली को दबा
बोटी बोटी जलती थी
उस का बदन अँगारा था
ते के ऊपर दो नुक़्ते
बे के नीचे इक नुक़्ते
चाय में उस के पिस्ताँ थे
मेरा बदन पानी में था
तन्हाई की रानों में
सुब्ह तलक मैं क़ैद रहा
'आदिल' अब शादी कर लो
सत्ताईस्वाँ ख़त्म हुआ
वो बरसात की शब वो पिछ्ला पहर आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
वो बरसात की शब वो पिछ्ला पहर
अँधेरे के पहलू में सुनसान घर
खुलेंगे अभी और किस किस के दर
कहाँ ख़त्म होगा लहू का सफ़र
कुछ अपने अक़ाएद भी कमज़ोर थे
लरज़ते थे साए भी दीवार पर
उजाले सिमटते रहे आँख में
सितारे बिखरते रहे फ़र्श पर
बदन में पिघलती रही चाँदनी
लहू में सुलगती रही दोपहर
कभी ख़ाक वालों की बातें भी सुन
कभी आसमानों से नीचे उतर
क़दम घर में रखते ही घायल हुआ
गिरे टूट कर मुझ पे दीवार-ओ-दर
सड़कों पर सूरज उतरा आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
सड़कों पर सूरज उतरा
साया साया टूट गया
जब गुल का सीना चीरा
ख़ुश्बू का काँटा निकला
तू किस के कमरे में थी
मैं तेरे कमरे में था
खिड़की ने आँखें खोली
दरवाज़े का दिल धड़का
दिल की अंधी ख़ंदक़ में
ख़्वाहिश का तारा टूटा
जिस्म के काले जंगल में
लज़्ज़त का चीता लपका
फिर बालों में रात हुई
फिर हाथों में चाँद खिला
साँस की आँच ज़रा तेज़ करो आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
साँस की आँच ज़रा तेज़ करो
काँच का जिस्म पिघल जाने दो
लाम ख़ाली है उसे मत छेड़ो
नून के पेट में नुक़्ता देखो
रात के पर्दे उलटते जाओ
चाँद का जिस्म बरहना भी हो
सर उठाओ न कनार-ए-दरिया
मौज को सर से गुज़र जाने दो
ख़ुद-ब-ख़ुद शाख़ लचक जाएगी
फल से भरपूर तो हो लेने दो
आँख खुलते ही ये आवाज़ आई
चोर घुस आया है घर में पकड़ो
उँगलियाँ चाटते रह जाओगे
तुम कभी अपना लहू चख देखो
मौत सड़कों पे फिरा करती है
घर से निकलो तो सँभल कर निकलो
कौन अब शेर कहे नज़्म लिखे
शहर ही छोड़ गई जब ज़ेबो
तुम को दावा है सुख़न-फ़हमी का
जाओ 'ग़ालिब' के तरफ़-दार बनो
कल वो 'आदिल' से ये फ़रमाते थे
शाएरी छोड़ के शादी कर लो
सोए हुए पलंग के साए जगा गया आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
सोए हुए पलंग के साए जगा गया
खिड़की खुली तो आसमाँ कमरे में आ गया
आँगन में तेरी याद का झोंका जो आ गया
तन्हाई के दरख़्त से पत्ते उड़ा गया
हँसते चमकते ख़्वाब के चेहरे भी मिट गए
बत्ती जली तो मन में अंधेरा सा छा गया
आया था काले ख़ून का सैलाब पिछली रात
बरसों पुरानी जिस्म की दीवार ढा गया
तस्वीर में जो क़ैद था वो शख़्स रात को
ख़ुद ही फ़्रेम तोड़ के पहलू में आ गया
वो चाय पी रहा था किसी दूसरे के साथ
मुझ पर निगाह पड़ते ही कुछ झेंप सा गया
हज का सफ़र है इस में कोई साथ भी तो हो आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
हज का सफ़र है इस में कोई साथ भी तो हो
पर्दा-नशीं से अपनी मुलाक़ात भी तो हो
कब से टहल रहे हैं गरेबान खोल कर
ख़ाली घटा को क्या करें बरसात भी तो हो
दिन है कि ढल नहीं रहा इस रेग-ज़ार में
मंज़िल भले न आए कहीं रात भी तो हो
मजमूआ छापने तो चले हो मियाँ मगर
अशआर में तुम्हारे कोई बात भी तो हो
हर ख़्वाब काली रात के साँचे में ढाल कर आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
हर ख़्वाब काली रात के साँचे में ढाल कर
ये कौन छुप गया है सितारे उछाल कर
ऐसे डरे हुए हैं ज़माने की चाल से
घर में भी पाँव रखते हैं हम तो सँभाल कर
ख़ाना-ख़राबियों में तिरा भी पता नहीं
तुझ को भी क्या मिला हमें घर से निकाल कर
झुलसा गया है काग़ज़ी चेहरों की दास्ताँ
जलती हुई ख़मोशियाँ लफ़्ज़ों में ढाल कर
ये फूल ख़ुद ही सूख कर आएँगे ख़ाक पर
तू अपने हाथ से न इन्हें पाएमाल कर
हाथ में आफ़्ताब पिघला कर आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
हाथ में आफ़्ताब पिघला कर
रात भर रौशनी से खेला कर
यूँ खुले सर न घर से निकला कर
देख बूढ़ों की बात माना कर
आइना आईने में क्या देखे
टूट जाते हैं ख़्वाब टकरा कर
एक दम यूँ उछल नहीं पड़ते
बात के पैंतरे भी समझा कर
देख ठोकर बने न तारीकी
कोई सोया है पाँव फैला कर
ऊँट जाने किधर निकल भागा
जलते सहरा में हम को ठहरा कर
हुआ ख़त्म दरिया तो सहरा लगा आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
हुआ ख़त्म दरिया तो सहरा लगा
सफ़र का तसलसुल कहाँ जा लगा
अजब रात बस्ती का नक़्शा लगा
हर इक नक़्श अंदर से टूटा लगा
तुम्हारा हज़ारों से रिश्ता लगा
कहो साईं का काम कैसा लगा
अभी खिंच ही जाती लहू की धनक
मियाँ तीर टुक तेरा तिरछा लगा
लहू में उतरती रही चाँदनी
बदन रात का कितना ठंडा लगा
तअज्जुब के सुराख़ से देखते
अंधेरे में कैसे निशाना लगा
होने को यूँ तो शहर में अपना मकान था आदिल मंसूरी ग़ज़ल / Adil Mansuri Ghazal
होने को यूँ तो शहर में अपना मकान था
नफ़रत का रेगज़ार मगर दरमियान था
लम्हे के टूटने की सदा सुन रहा था मैं
झपकी जो आँख सर पे नया आसमान था
कहने को हाथ बाँधे खड़े थे नमाज़ में
पूछो तो दूसरी ही तरफ़ अपना ध्यान था
अल्लाह जाने किस पे अकड़ता था रात दिन
कुछ भी नहीं था फिर भी बड़ा बद-ज़बान था
शोले उगलते तीर बरसते थे चर्ख़ से
साया था पास में न कोई साएबान था
सब से किया है वस्ल का वादा अलग अलग
कल रात वो सभी पे बहुत मेहरबान था
मुँह-फट था बे-लगाम था रुस्वा था ढीट था
जैसा भी था वो दोस्तो महफ़िल की जान था
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