अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
अजब नहीं कभी नग़्मा बने फ़ुग़ाँ मेरी अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
अजब नहीं कभी नग़्मा बने फ़ुग़ाँ मेरी
मिरी बहार में शामिल है अब ख़िज़ाँ मेरी
मैं अपने आप को औरों में रख के देखता हूँ
कहीं फ़रेब न हों दर्द-मंदियाँ मेरी
मैं अपनी क़ुव्वत-ए-इज़हार की तलाश में हूँ
वो शौक़ है कि सँभलती नहीं ज़बाँ मेरी
यही सबब है कि अहवाल-ए-दिल नहीं कहता
कहूँ तो और उलझती हैं गुत्थियाँ मेरी
मैं अपने इज्ज़ पे नादिम नहीं हूँ हम-सुख़नो
हज़ार शुक्र तबीअत नहीं रवाँ मेरी
अब न बहल सकेगा दिल अब न दिए जलाइए अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
अब न बहल सकेगा दिल अब न दिए जलाइए
इश्क़ ओ हवस हैं सब फ़रेब आप से क्या छुपाइए
उस ने कहा कि याद हैं रंग तुलू-ए-इश्क़ के
मैं ने कहा कि छोड़िए अब उन्हें भूल जाइए
कैसे नफ़ीस थे मकाँ साफ़ था कितना आसमाँ
मैं ने कहा कि वो समाँ आज कहाँ से लाइए
कुछ तो सुराग़ मिल सके मौसम-ए-दर्द-ए-हिज्र का
संग-ए-जमाल-ए-यार पर नक़्श कोई बनाइए
कोई शरर नहीं बचा पिछले बरस की राख में
हम-नफ़सान-ए-शोला-ख़ू आग नई जलाइए
अब वो गलियाँ वो मकाँ याद नहीं अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
अब वो गलियाँ वो मकाँ याद नहीं
कौन रहता था कहाँ याद नहीं
जल्वा-ए-हुस्न-ए-अज़ल थे वो दयार
जिन के अब नाम-ओ-निशाँ याद नहीं
कोई उजला सा भला सा घर था
किस को देखा था वहाँ याद नहीं
याद है ज़ीना-ए-पेचाँ उस का
दर-ओ-दीवार-ए-मकाँ याद नहीं
याद है ज़मज़मा-ए-साज़-ए-बहार
शोर-ए-आवाज़-ए-ख़िज़ाँ याद नहीं
अश्क दामन में भरे ख़्वाब कमर पर रक्खा अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
अश्क दामन में भरे ख़्वाब कमर पर रक्खा
फिर क़दम हम ने तिरी राहगुज़र पर रक्खा
हम ने एक हाथ से थामा शब-ए-ग़म का आँचल
और इक हाथ को दामान-ए-सहर पर रक्खा
चलते चलते जो थके पाँव तो हम बैठ गए
नींद गठरी पे धरी ख़्वाब शजर पर रक्खा
जाने किस दम निकल आए तिरे रुख़्सार की धूप
मुद्दतों ध्यान तिरे साया-ए-दर पर रक्खा
जाते मौसम ने पलट कर भी न देखा 'मुश्ताक़'
रह गया साग़र-ए-गुल सब्ज़ा-ए-तर पर रक्खा
आज रो कर तो दिखाए कोई ऐसा रोना अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
आज रो कर तो दिखाए कोई ऐसा रोना
याद कर ऐ दिल-ए-ख़ामोश वो अपना रोना
रक़्स करना कभी ख़्वाबों के शबिस्तानों में
कभी यादों के सुतूनों से लिपटना रोना
तुझ से सीखे कोई रोने का सलीक़ा ऐ अब्र
कहीं क़तरा न गिराना कहीं दरिया रोना
रस्म-ए-दुनिया भी वही राह-ए-तमन्ना भी वही
वही मिल बैठ के हँसना वही तन्हा रोना
ये तिरा तौर समझ में नहीं आया 'मुश्ताक़'
कभी हँसते चले जाना कभी इतना रोना
इक फूल मेरे पास था इक शम्अ मेरे साथ थी अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
इक फूल मेरे पास था इक शम्अ मेरे साथ थी
बाहर ख़िज़ाँ का ज़ोर था अंदर अँधेरी रात थी
ऐसे परेशाँ तो न थे टूटे हुए सन्नाहटे
जब इश्क़ की तेरे मिरे ग़म पर बसर-औक़ात थी
कुछ तुम कहो तुम ने कहाँ कैसे गुज़ारे रोज़ ओ शब
अपने न मिलने का सबब तो गर्दिश-ए-हालात थी
इक ख़ामुशी थी तर-ब-तर दीवार-ए-मिज़्गाँ से उधर
पहुँचा हुआ पैग़ाम था बरसी हुई बरसात थी
सब फूल दरवाज़ों में थे सब रंग आवाज़ों में थे
इक शहर देखा था कभी उस शहर की क्या बात थी
ये हैं नए लोगों के घर सच है अब उन को क्या ख़बर
दिल भी किसी का नाम था ग़म भी किसी की ज़ात थी
इन मौसमों में नाचते गाते रहेंगे हम अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
इन मौसमों में नाचते गाते रहेंगे हम
हँसते रहेंगे शोर मचाते रहेंगे हम
लब सूख क्यूँ न जाएँ गला बैठ क्यूँ न जाए
दिल में हैं जो सवाल उठाते रहेंगे हम
अपनी रह-ए-सुलूक में चुप रहना मना है
चुप रह गए तो जान से जाते रहेंगे हम
निकले तो इस तरह कि दिखाई नहीं दिए
डूबे तो देर तक नज़र आते रहेंगे हम
दुख के सफ़र पे दिल को रवाना तो कर दिया
अब सारी उम्र हाथ हिलाते रहेंगे हम
इश्क़ में कौन बता सकता है अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
इश्क़ में कौन बता सकता है
किस ने किस से सच बोला है
हम तुम साथ हैं इस लम्हे में
दुख सुख तो अपना अपना है
मुझ को तो सारे नामों में
तेरा नाम अच्छा लगता है
भूल गई वो शक्ल भी आख़िर
कब तक याद कोई रहता है
उजला तिरा बर्तन है और साफ़ तिरा पानी अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
उजला तिरा बर्तन है और साफ़ तिरा पानी
इक उम्र का प्यासा हूँ मुझ को भी पिला पानी
है इक ख़त-ए-नादीदा दरिया-ए-मोहब्बत में
होता है जहाँ आ कर पानी से जुदा पानी
दोनों ही तो सच्चे थे इल्ज़ाम किसे देते
कानों ने कहा सहरा आँखों ने सुना पानी
क्या क्या न मिली मिट्टी क्या क्या न धुआँ फैला
काला न हुआ सब्ज़ा मैला न हुआ पानी
जब शाम उतरती है क्या दिल पे गुज़रती है
साहिल ने बहुत पूछा ख़ामोश रहा पानी
फिर देख कि ये दुनिया कैसी नज़र आती है
'मुश्ताक़' मय-ए-ग़म में थोड़ा सा मिला पानी
उदास कर के दरीचे नए मकानों के अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
उदास कर के दरीचे नए मकानों के
सितारे डूब गए सब्ज़ आसमानों के
गई वो शब जो कभी ख़त्म ही न होती थी
हवाएँ ले गईं औराक़ दास्तानों के
हर आन बर्क़ चमकती है दिल धड़कता है
मिरी क़मीस पे तिनके हैं आशियानों के
तिरे सुकूत से वो राज़ भी हुए इफ़्शा
कि जिन को कान तरसते थे राज़-दानों के
ये बात तो जरस-ए-शौक़ को भी है मालूम
क़दम उठें गे तो बस तेरे ना-तवानों के
कहीं उम्मीद सी है दिल के निहाँ ख़ाने में अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
कहीं उम्मीद सी है दिल के निहाँ ख़ाने में
अभी कुछ वक़्त लगेगा उसे समझाने में
मौसम-ए-गुल हो कि पतझड़ हो बला से अपनी
हम कि शामिल हैं न खिलने में न मुरझाने में
हम से मख़्फ़ी नहीं कुछ रहगुज़र-ए-शौक़ का हाल
हम ने इक उम्र गुज़ारी है हवा खाने में
है यूँही घूमते रहने का मज़ा ही कुछ और
ऐसी लज़्ज़त न पहुँचने में न रह जाने में
नए दीवानों को देखें तो ख़ुशी होती है
हम भी ऐसे ही थे जब आए थे वीराने में
मौसमों का कोई महरम हो तो उस से पूछो
कितने पतझड़ अभी बाक़ी हैं बहार आने में
किस झुटपुटे के रंग उजालों में आ गए अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
किस झुटपुटे के रंग उजालों में आ गए
टुकड़े शफ़क़ के धूप से गालों में आ गए
अफ़्सुर्दगी की लय भी तिरे क़हक़हों में थी
पतझड़ के सर बहार के झालों में आ गए
उड़ कर कहाँ कहाँ से परिंदों के क़ाफ़िले
नादीदा पानियों के ख़यालों में आ गए
हुस्न तमाम थे तो कोई देखता न था
तुम दर्द बन के देखने वालों में आ गए
काँटे समझ के घास पे चलता रहा हूँ मैं
क़तरे तमाम ओस के छालों में आ गए
कुछ रत-जगे थे जिन की ज़रूरत नहीं रही
कुछ ख़्वाब थे जो मेरे ख़यालों में आ गए
कहूँ किस से रात का माजरा नए मंज़रों पे निगाह थी अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
कहूँ किस से रात का माजरा नए मंज़रों पे निगाह थी
न किसी का दामन-ए-चाक था न किसी की तर्फ़-ए-कुलाह थी
कई चाँद थे सर-ए-आसमाँ कि चमक चमक के पलट गए
न लहू मिरे ही जिगर में था न तुम्हारी ज़ुल्फ़ सियाह थी
दिल-ए-कम-अलम पे वो कैफ़ियत कि ठहर सके न गुज़र सके
न हज़र ही राहत-ए-रूह था न सफ़र में रामिश राह थी
मिरे चार-दांग थी जल्वागर वही लज़्ज़त-ए-तलब-ए-सहर
मगर इक उम्मीद-ए-शिकस्ता-पर कि मिसाल-ए-दर्द सियाह थी
वो जो रात मुझ को बड़े अदब से सलाम कर के चला गया
उसे क्या ख़बर मिरे दिल में भी कभी आरज़ू-ए-गुनाह थी
किस शय पे यहाँ वक़्त का साया नहीं होता अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
किस शय पे यहाँ वक़्त का साया नहीं होता
इक ख़्वाब-ए-मोहब्बत है कि बूढ़ा नहीं होता
वो वक़्त भी आता है जब आँखों में हमारी
फिरती हैं वो शक्लें जिन्हें देखा नहीं होता
बारिश वो बरसती है कि भर जाते हैं जल-थल
देखो तो कहीं अब्र का टुकड़ा नहीं होता
घिर जाता है दिल दर्द की हर बंद गली में
चाहो कि निकल जाएँ तो रस्ता नहीं होता
यादों पे भी जम जाती है जब गर्द-ए-ज़माना
मिलता है वो पैग़ाम कि पहुँचा नहीं होता
तन्हाई में करनी तो है इक बात किसी से
लेकिन वो किसी वक़्त अकेला नहीं होता
क्या उस से गिला कीजिए बर्बादी-ए-दिल का
हम से भी तो इज़हार-ए-तमन्ना नहीं होता
ख़्वाब के फूलों की ताबीरें कहानी हो गईं अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
ख़्वाब के फूलों की ताबीरें कहानी हो गईं
ख़ून ठंडा पड़ गया आँखें पुरानी हो गईं
जिस का चेहरा था चमकते मौसमों की आरज़ू
उस की तस्वीरें भी औराक़-ए-ख़िज़ानी हो गईं
दिल भर आया काग़ज़-ए-ख़ाली की सूरत देख कर
जिन को लिखना था वो सब बातें ज़बानी हो गईं
जो मुक़द्दर था उसे तो रोकना बस में न था
उन का क्या करते जो बातें ना-गहानी हो गईं
रह गया 'मुश्ताक़' दिल में रंग-ए-याद-ए-रफ़्तगाँ
फूल महँगे हो गए क़ब्रें पुरानी हो गईं
चमक दमक पे न जाओ खरी नहीं कोई शय अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
चमक दमक पे न जाओ खरी नहीं कोई शय
सिवाए शाख़-ए-तमन्ना हरी नहीं कोई शय
दिल-ए-गदाज़ ओ लब-ए-ख़ुश्क ओ चश्म-ए-तर के बग़ैर
ये इल्म ओ फ़ज़्ल ये दानिश-वरी नहीं कोई शय
तो फिर ये कशमकश-ए-दिल कहाँ से आई है
जो दिल-गिरफ़्तगी ओ दिलबरी नहीं कोई शय
अजब हैं वो रुख़ ओ गेसू कि सामने जिन के
ये सुब्ह ओ शाम की जादूगरी नहीं कोई शय
मलाल-ए-साया-ए-दीवार-ए-यार के आगे
शब-ए-तरब तिरी नीलम-परी नहीं कोई शय
जहान-ए-इश्क़ से हम सरसरी नहीं गुज़रे
ये वो जहाँ है जहाँ सरसरी नहीं कोई शय
तिरी नज़र की गुलाबी है शीशा-ए-दिल में
कि हम ने और तो उस में भरी नहीं कोई शय
चश्म ओ लब कैसे हों रुख़्सार हों कैसे तेरे अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
चश्म ओ लब कैसे हों रुख़्सार हों कैसे तेरे
हम ख़यालों में बनाते रहे नक़्शे तेरे
तेरे सावंत को सूली की ज़बाँ चाट गई
जिस्म अभी गर्म था और बाल थे गीले तेरे
क्या कहूँ क्या तिरे अफ़्सुर्दा दिलों पर गुज़री
कैसे ताराज हुए आईना-ख़ाने तेरे
अब कहाँ देखने वालों को यक़ीं आएगा
बाग़-ए-जन्नत था बदन ख़्वाब थे बोसे तेरे
चाँद इस घर के दरीचों के बराबर आया अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
चाँद उस घर के दरीचों के बराबर आया
दिल-ए-मुश्ताक़ ठहर जा वही मंज़र आया
मैं बहुत ख़ुश था कड़ी धूप के सन्नाटे में
क्यूँ तिरी याद का बादल मिरे सर पर आया
बुझ गई रौनक़-ए-परवाना तो महफ़िल चमकी
सो गए अहल-ए-तमन्ना तो सितमगर आया
यार सब जम्अ हुए रात की ख़ामोशी में
कोई रो कर तो कोई बाल बना कर आया
चाँद भी निकला सितारे भी बराबर निकले अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
चाँद भी निकला सितारे भी बराबर निकले
मुझ से अच्छे तो शब-ए-ग़म के मुक़द्दर निकले
शाम होते ही बरसने लगे काले बादल
सुब्ह-दम लोग दरीचों में खुले सर निकले
कल ही जिन को तिरी पलकों पे कहीं देखा था
रात उसी तरह के तारे मिरी छत पर निकले
धूप सावन की बहुत तेज़ है दिल डूबता है
उस से कह दो कि अभी घर से न बाहर निकले
प्यार की शाख़ तो जल्दी ही समर ले आई
दर्द के फूल बड़ी देर में जा कर निकले
दिल-ए-हंगामा-तलब ये भी ख़बर है तुझ को
मुद्दतें हो गईं इक शख़्स को बाहर निकले
छिन गई तेरी तमन्ना भी तमन्नाई से अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
छिन गई तेरी तमन्ना भी तमन्नाई से
दिल बहलते हैं कहीं हौसला-अफ़ज़ाई से
कैसा रौशन था तिरा नींद में डूबा चेहरा
जैसे उभरा हो किसी ख़्वाब की गहराई से
वही आशुफ़्ता-मिज़ाजी वही ख़ुशियाँ वही ग़म
इश्क़ का काम लिया हम ने शनासाई से
न कभी आँख भर आई न तिरा नाम लिया
बच के चलते रहे हर कूचा-ए-रुस्वाई से
हिज्र के दम से सलामत है तिरे वस्ल की आस
तर-ओ-ताज़ा है ख़ुशी ग़म की तवानाई से
खिल के मुरझा भी गए फ़स्ल-ए-मुलाक़ात के फूल
हम ही फ़ारिग़ न हुए मौसम-ए-तन्हाई से
ज़मीं से उगती है या आसमाँ से आती है अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
ज़मीं से उगती है या आसमाँ से आती है
ये बे-इरादा उदासी कहाँ से आती है
इसे नए दर-ओ-दीवार भी न रोक सके
वो इक सदा जो पुराने मकाँ से आती है
बदन की बॉस नसीम-ए-लिबास बू-ए-नफ़स
कोई महक हो उसी ख़ाक-दाँ से आती है
दिलों की बर्फ़ पिघलती नहीं है जिस के बग़ैर
वो आँच एक ग़म-ए-बे-निशाँ से आती है
सुख़न-वरी है नज़र से नज़र का नाज़-ओ-नियाज़
अरूज़ से न ज़बान-ओ-बयाँ से आती है
ज़िंदगी से एक दिन मौसम ख़फ़ा हो जाएँगे अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
ज़िंदगी से एक दिन मौसम ख़फ़ा हो जाएँगे
रंग-ए-गुल और बू-ए-गुल दोनों हवा हो जाएँगे
आँख से आँसू निकल जाएँगे और टहनी से फूल
वक़्त बदलेगा तो सब क़ैदी रिहा हो जाएँगे
फूल से ख़ुश्बू बिछड़ जाएगी सूरज से किरन
साल से दिन वक़्त से लम्हे जुदा हो जाएँगे
कितने पुर-उम्मीद कितने ख़ूब-सूरत हैं ये लोग
क्या ये सब बाज़ू ये सब चेहरे फ़ना हो जाएँगे
ज़ुल्फ़ देखी वो धुआँ-धार वो चेहरा देखा अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
ज़ुल्फ़ देखी वो धुआँ-धार वो चेहरा देखा
सच बता देखने वाले उसे कैसा देखा
रात सारी किसी टूटी हुई कश्ती में कटी
आँख बिस्तर पे खुली ख़्वाब में दरिया देखा
ज़र्द गलियों में खुले सब्ज़ दरीचे जिन में
धूप लिपटी रही और साए को जलता देखा
काले कमरों में कटी सारी जवानी उस की
जिस ने ऐ सुब्ह-ए-मोहब्बत तिरा रस्ता देखा
सुनते रहते थे कि यूँ होगा वो ऐसा होगा
लेकिन उस को तो किसी और तरह का देखा
टूट गया हवा का ज़ोर सैल-ए-बला उतर गया अहमद मुश्ताक ग़ज़ल / Ahmad Mushtaq Ghazal
टूट गया हवा का ज़ोर सैल-ए-बला उतर गया
संग-ओ-कुलूख़ रह गए लहर गई भँवर गया
वो भी अजीब दौर था दिल का चलन ही और था
शाम हुई तो जी उठा सुब्ह हुई तो मर गया
किस के बंधे हुए थे हम दामन-ए-माहताब से
हम भी उधर उधर गए चाँद जिधर जिधर गया
कितने रफ़ीक़-ओ-हम-सफ़र जिन की मिली न कुछ ख़बर
किस के क़दम उठे किधर कौन कहाँ पसर गया
बुझ गई रौनक़-ए-बदन उड़ गया रंग-ए-पैरहन
जान उमीद-वार-ए-मन वक़्त बहुत गुज़र गया
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