ऐतबार साजिद ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal












वो पहली जैसी वहशतें वो हाल ही नहीं रहा ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

वो पहली जैसी वहशतें वो हाल ही नहीं रहा
कि अब तो शौक़-ए-राहत-ए-विसाल ही नहीं रहा

तमाम हसरतें हर इक सवाल दफ़्न कर चुके
हमारे पास अब कोई सवाल ही नहीं रहा

तलाश-ए-रिज़्क़ में ये शाम इस तरह गुज़र गई
कोई है अपना मुंतज़िर ख़याल ही नहीं रहा

इन आते जाते रोज़-ओ-शब कि गर्दिशों को देख कर
किसी के हिज्र का कोई मलाल ही नहीं रहा

हमारा क्या बनेगा कुछ न कुछ तो इस पे सोचते
मगर कभी हमें ग़म-ए-मआल ही नहीं रहा

तुम्हारे ख़ाल-ओ-ख़द पे इक किताब लिख रहे थे हम
मगर तुम्हारा हुस्न बे-मिसाल ही नहीं रहा

सँवारता निखारता मैं कैसे अपने आप को
तुम्हारे बाद अपना कुछ ख़याल ही नहीं रहा

ज़रा सी बात से दिलों में इतना फ़र्क़ आ गया
तअल्लुक़ात का तो फिर सवाल ही नहीं रहा

ये हसीं लोग हैं तू इन की मुरव्वत पे न जा ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

ये हसीं लोग हैं तू इन की मुरव्वत पे न जा
ख़ुद ही उठ बैठ किसी इज़्न ओ इजाज़त पे न जा

सूरत-ए-शम्अ तिरे सामने रौशन हैं जो फूल
उन की किरनों में नहा ज़ौक़-ए-समाअत पे न जा

दिल सी चेक-बुक है तिरे पास तुझे क्या धड़का
जी को भा जाए तो फिर चीज़ की क़ीमत पे न जा

इतना कम-ज़र्फ़ न बन उस के भी सीने में है दिल
उस का एहसास भी रख अपनी ही राहत पे न जा

देखता क्या है ठहर कर मिरी जानिब हर रोज़
रौज़न-ए-दर हूँ मिरी दीद की हैरत पे न जा

तेरे दिल-सोख़्ता बैठे हैं सर-ए-बाम अभी
बाल खोले हुए तारों भरी इस छत पे न जा

मेरी पोशाक तो पहचान नहीं है मेरी
दिल में भी झाँक मिरी ज़ाहिरी हालत पे न जा

ये ठीक है कि बहुत वहशतें भी ठीक नहीं ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

ये ठीक है कि बहुत वहशतें भी ठीक नहीं
मगर हमारी ज़रा आदतें भी ठीक नहीं

अगर मिलो तो खुले दिल के साथ हम से मिलो
कि रस्मी रस्मी सी ये चाहतें भी ठीक नहीं

तअल्लुक़ात में गहराइयाँ तो अच्छी हैं
किसी से इतनी मगर क़ुर्बतें भी ठीक नहीं

दिल ओ दिमाग़ से घायल हैं तेरे हिज्र-नसीब
शिकस्ता दर भी हैं उन की छतें भी ठीक नहीं

क़लम उठा के चलो हाल-ए-दिल ही लिख डालो
कि रात दिन की बहुत फ़ुर्क़तें भी ठीक नहीं

तुम 'ए'तिबार' परेशाँ भी इन दिनों हो बहुत
दिखाई पड़ता है कुछ सोहबतें भी ठीक नहीं

मैं तकिए पर सितारे बो हा हूँ ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

मैं तकिए पर सितारे बो हा हूँ 
जनम-दिन है अकेला रो रहा हूँ 

किसी ने झाँक कर देखा न दिल में 
कि मैं अंदर से कैसा हो रहा हूँ 

जो दिल पर दाग़ हैं पिछली रुतों के 
उन्हें अब आँसुओं से धो रहा हूँ 

सभी परछाइयाँ हैं साथ लेकिन 
भरी महफ़िल में तन्हा हो रहा हूँ 

मुझे इन निस्बतों से कौन समझा 
मैं रिश्ते में किसी का जो रहा हूँ 

मैं चौंक उठता हूँ अक्सर बैठे बैठे 
कि जैसे जागते में सो रहा हूँ 

किसे पाने की ख़्वाहिश है कि 'साजिद' 
मैं रफ़्ता रफ़्ता ख़ुद को खो रहा हूँ 

मिरी रूह में जो उतर सकें वो मोहब्बतें मुझे चाहिएँ ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

मिरी रूह में जो उतर सकें वो मोहब्बतें मुझे चाहिएँ
जो सराब हों न अज़ाब हों वो रिफाक़तें मुझे चाहिएँ

उन्हीं साअ'तों की तलाश है जो कैलेंडरों से उतर गईं
जो समय के साथ गुज़र गईं वही फ़ुर्सतें मुझे चाहिएँ

कहीं मिल सकें तो समेट ला मरे रोज़ ओ शब की कहानियाँ
जो ग़ुबार-ए-वक़्त में छुप गईं वो हिकायतें मुझे चाहिएँ

जो मिरी शबों के चराग़ थे जो मिरी उमीद के बाग़ थे
वही लोग हैं मिरी आरज़ू वही सूरतें मुझे चाहिएँ

तिरी क़ुर्बतें नहीं चाहिएँ मरी शाइरी के मिज़ाज को
मुझे फ़ासलों से दवाम दे तरी फ़ुर्क़तें मुझे चाहिएँ

मुझे और कुछ नहीं चाहिए ये दुआएँ हैं मरे साएबाँ
कड़ी धूप में कहीं मिल सकें तो यही छतें मुझे चाहिएँ

मिरा है कौन दुश्मन मेरी चाहत कौन रखता है ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

मिरा है कौन दुश्मन मेरी चाहत कौन रखता है
इसी पर सोचते रहने की फ़ुर्सत कौन रखता है

मकीनों के तअल्लुक़ ही से याद आती है हर बस्ती
वगरना सिर्फ़ बाम-ओ-दर से उल्फ़त कौन रखता है

नहीं है निर्ख़ कोई मेरे इन अशआर-ए-ताज़ा का
ये मेरे ख़्वाब हैं ख़्वाबों की क़ीमत कौन रखता है

दर-ए-ख़ेमा खुला रक्खा है गुल कर के दिया हम ने
सो इज़्न-ए-आम है लो शौक़-रुख़्सत कौन रखता है

मरे दुश्मन का क़द इस भीड़ में मुझ से तो ऊँचा हो
यही में ढूँढता हूँ ऐसी क़ामत कौन रखता है

हमारे शहर की रौनक़ है कुछ मशहूर लोगों से
मगर सब जानते हैं कैसी शोहरत कौन रखता है

बहुत सजाए थे आँखों में ख़्वाब मैं ने भी ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

बहुत सजाए थे आँखों में ख़्वाब मैं ने भी
सहे हैं उस के लिए ये अज़ाब मैं ने भी

जुदाइयों की ख़लिश उस ने भी न ज़ाहिर की
छुपाए अपने ग़म ओ इज़्तिराब मैं ने भी

दिए बुझा के सर-ए-शाम सो गया था वो
बिताई सो के शब-ए-माहताब मैं ने भी

यही नहीं कि मुझे उस ने दर्द-ए-हिज्र दिया
जुदाइयों का दिया है जवाब मैं ने भी

किसी ने ख़ून में तर चूड़ियाँ जो भेजी हैं
लिखी है ख़ून-ए-जिगर से किताब मैं ने भी

ख़िज़ाँ का वार बहुत कार-गर था दिल पे मगर
बहुत बचा के रखा ये गुलाब मैं ने भी

बंदे ज़मीन और आसमाँ सरमा की शब कहानियाँ ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

बंदे ज़मीन और आसमाँ सरमा की शब कहानियाँ
सच्ची हैं ये रिफाक़तें बाक़ी हैं सब कहानियाँ

ख़ेमे उखड़ उजड़ गए ऐसी हवा-ए-शब चली
किरनें ज़मीं पे लिख गईं कैसी अजब कहानियाँ

वुसअत-ए-दश्त के मकीं वादी में कूच कर गए
शाख़ों पे बर्फ़ लिख गई नग़्मा-ब-लब कहानियाँ

चाँद की ख़ाक आ गई पैरों तले हयात के
ऐसी कठिन रिवायतें ऐसी कढब कहानियाँ

जौहर-ए-हक़ नहीं मिला मुझ को किसी किताब में
मिट्टी से सुन रहा हूँ मैं आली-नसब कहानियाँ

वुसअत-ए-कोह-ओ-दश्त हो शहर ओ नगर का गश्त हो
मेरा सफ़र हिकायतें मेरा अदब कहानियाँ

शहरों को क्या ख़बर कि मैं कौन हूँ किस फ़ज़ा में हूँ
लिखनी हैं एक दिन मुझे सब्र-तलब कहानियाँ

फूल थे रंग थे लम्हों की सबाहत हम थे ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

फूल थे रंग थे लम्हों की सबाहत हम थे
ऐसे ज़िंदा थे कि जीने की अलामत हम थे

सब ख़िरद-मंद बने फिरते थे माशा-अल्लाह
बस तिरे शहर में इक साहिब-ए-वहशत हम थे

नाम बख़्शा है तुझे किस के वुफ़ूर-ए-ग़म ने
गर कोई था तो तिरे मुजरिम-ए-शोहरत हम थे

अब तो ख़ुद अपनी ज़रूरत भी नहीं है हम को
वो भी दिन थे कि कभी तेरी ज़रूरत हम थे

धूप के दश्त में कितना वो हमें ढूँडता था
'ए'तिबार' उस के लिए अब्र की सूरत हम थे

न गुमान मौत का है न ख़याल ज़िंदगी का ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

न गुमान मौत का है न ख़याल ज़िंदगी का
सो ये हाल इन दिनों है मिरे दिल की बे-कसी का

मैं शिकस्ता बाम ओ दर में जिसे जा के ढूँडता था
कोई याद थी किसी की कोई नाम था किसी का

मैं हवाओं से हिरासाँ वो घुटन से दिल-गिरफ़्ता
मैं चराग़ तीरगी का वो गुलाब रौशनी का

अभी रेल के सफ़र में हैं बहुत निहाल दोनों
कहीं रोग बन न जाए यही साथ दो घड़ी का

कोई शहर आ रहा है तो ये ख़ौफ़ आ रहा है
कोई जाने कब उतर ले कि भरोसा क्या किसी का

कोई मुख़्तलिफ़ नहीं है ये धुआँ ये राएगानी
कि जो हाल शहर का है वही अपनी शाइरी का

धड़कन धड़कन यादों की बारात अकेला कमरा ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

धड़कन धड़कन यादों की बारात अकेला कमरा
मैं और मेरे ज़ख़्मी एहसासात अकेला कमरा

गए दिनों की तस्वीरों के बुझते हुए नुक़ूश
ताज़ा तर्क-ए-तअल्लुक़ के सदमात अकेला कमरा

दोश-ए-हवा पर उड़ने वाले ख़िज़ाँ के आख़िरी पत्ते
अपनी अकेली जान ग़म-ए-हालात अकेला कमरा

आख़िरी शब के चाँद से करना बालकनी में बातें
उस के शहर में होटल की ये रात अकेला कमरा

मेरी सिसकती आवाज़ों से गूँजती हैं दीवारें
सुनता है दिन रात मरे नग़्मात अकेला कमरा

सब सामान बहम हैं 'साजिद' लिखने लिखाने के
ख़ून-ए-जिगर और आँसू दिल की दवात अकेला कमरा

तुम्हें जब कभी मिलें फ़ुर्सतें मिरे दिल से बोझ उतार दो ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

तुम्हें जब कभी मिलें फ़ुर्सतें मिरे दिल से बोझ उतार दो
मैं बहुत दिनों से उदास हूँ मुझे कोई शाम उधार दो

मुझे अपने रूप की धूप दो कि चमक सकें मिरे ख़ाल-ओ-ख़द
मुझे अपने रंग में रंग दो मिरे सारे रंग उतार दो

किसी और को मिरे हाल से न ग़रज़ है कोई न वास्ता
मैं बिखर गया हूँ समेट लो मैं बिगड़ गया हूँ सँवार दो

जाने किस चाह के किस प्यार के गुन गाते हो ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

जाने किस चाह के किस प्यार के गुन गाते हो
रात दिन कौन से दिलदार के गुन गाते हो

ये तो देखो कि तुम्हें लूट लिया है उस ने
इक तबस्सुम पे ख़रीदार के गुन गाते हो

अपनी तन्हाई पे नाज़ाँ हो मिरे सादा-मिज़ाज
अपने सूने दर ओ दीवार के गुन गाते हो

अपने ही ज़ेहन की तख़्लीक़ पे इतने सरशार
अपने अफ़्सानवी किरदार के गुन गाते हो

और लोगों के भी घर होते हैं घर वाले भी
सिर्फ़ अपने दर ओ दीवार के गुन गाते हो

ज़ख़्मों का दो-शाला पहना धूप को सर पर तान लिया ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal


ज़ख़्मों का दो-शाला पहना धूप को सर पर तान लिया
क्या क्या हम ने कष्ट कमाए कहाँ कहाँ निरवान लिया

नक़्श दिए तिरी आशाओं को अक्स दिए तिरे सपनों को
लेकिन देख हमारी हालत वक़्त ने क्या तावान लिया

अश्कों में हम गूँध चुके थे उस के लम्स की ख़ुशबू को
मोम के फूल बनाने बैठे लेकिन धूप ने आन लिया

बरसों ब'अद हमें देखा तो पहरों उस ने बात न की
कुछ तो गर्द-ए-सफ़र से भाँपा कुछ आँखों से जान लिया

आँख पे हात धरे फिरते थे लेकिन शहर के लोगों ने
उस की बातें छेड़ के हम को लहजे से पहचान लिया

सूरज सूरज खेल रहे थे 'साजिद' हम कल उस के साथ
इक इक क़ौस-ए-क़ुज़ह से गुज़रे इक इक बादल छान लिया

छोटे छोटे से मफ़ादात लिए फिरते हैं ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

छोटे छोटे से मफ़ादात लिए फिरते हैं
दर-ब-दर ख़ुद को जो दिन रात लिए फिरते हैं

अपनी मजरूह अनाओं को दिलासे दे कर
हाथ में कासा-ए-ख़ैरात लिए फिरते हैं

शहर में हम ने सुना है कि तिरे शोला-नवा
कुछ सुलगते हुए नग़्मात लिए फिरते हैं

मुख़्तलिफ़ अपनी कहानी है ज़माने भर से
मुनफ़रिद हम ग़म-ए-हालात लिए फिरते हैं

एक हम हैं कि ग़म-ए-दहर से फ़ुर्सत ही नहीं
एक वो हैं कि ग़म-ए-ज़ात लिए फिरते हैं

घर की दहलीज़ से बाज़ार में मत आ जाना ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

घर की दहलीज़ से बाज़ार में मत आ जाना
तुम किसी चश्म-ए-ख़रीदार में मत आ जाना

ख़ाक उड़ाना इन्हीं गलियों में भला लगता है
चलते फिरते किसी दरबार में मत आ जाना

यूँही ख़ुशबू की तरह फैलते रहना हर सू
तुम किसी दाम-ए-तलबगार में मत आ जाना

दूर साहिल पे खड़े रह के तमाशा करना
किसी उम्मीद के मंजधार में मत आ जाना

अच्छे लगते हो कि ख़ुद-सर नहीं ख़ुद्दार हो तुम
हाँ सिमट के बुत-ए-पिंदार में मत आ जाना

चाँद कहता हूँ तो मतलब न ग़लत लेना तुम
रात को रौज़न-ए-दीवार में मत आ जाना


आने वाली थी ख़िज़ाँ मैदान ख़ाली कर दिया ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

आने वाली थी ख़िज़ाँ मैदान ख़ाली कर दिया
कल हवा-ए-शब ने सारा लान ख़ाली कर दिया

हम तिरे ख़्वाबों की जन्नत से निकल कर आ गए
देख तेरा क़स्र-ए-आली-शान ख़ाली कर दिया

दुश्मनों ने शुस्त बाँधी ख़ेमा-ए-उम्मीद पर
दोस्तों ने दर्रा-ए-इमकान ख़ाली कर दिया

बाँटने निकला है वो फूलों के तोहफ़े शहर में
इस ख़बर पर हम ने भी गुल-दान ख़ाली कर दिया

ले गया वो साथ अपने दिल की सारी रौनक़ें
किस क़दर ये शहर था गुंजान ख़ाली कर दिया

सारी चिड़ियाँ उड़ गईं मुझ को अकेला छोड़ कर
मेरे घर का सेहन और दालान ख़ाली कर दिया

डाइरी में सारे अच्छे शेर चुन कर लिख लिए
एक लड़की ने मिरा दीवान ख़ाली कर दिया


आँखों से अयाँ ज़ख़्म की गहराई तो अब है ऐतबार साजिद  ग़ज़ल / Aitbar Sajid Ghazal

आँखों से अयाँ ज़ख़्म की गहराई तो अब है
अब आ भी चुको वक़्त-ए-मसीहाई तो अब है

पहले ग़म-ए-फ़ुर्क़त के ये तेवर तो नहीं थे
रग रग में उतरती हुई तन्हाई तो अब है

तारी है तमन्नाओं पे सकरात का आलम
हर साँस रिफ़ाक़त की तमन्नाई तो अब है

कल तक मिरी वहशत से फ़क़त तुम ही थे आगाह
हर गाम पे अंदेशा-ए-रुस्वाई तो अब है

क्या जाने महकती हुई सुब्हों में कोई दिल
शामों में किसी दर्द की रानाई तो अब है

दिल-सोज़ ये तारे हैं तो जाँ-सोज़ ये महताब
दर-असल शब-ए-अंजुमन-आराई तो अब है

सफ़-बस्ता हैं हर मोड़ पे कुछ संग-ब-कफ़ लोग
ऐ ज़ख़्म-ए-हुनर लुत्फ़-ए-पज़ीराई तो अब है

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