उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
अजीब थी वो अजब तरह चाहता था मैं उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
अजीब थी वो अजब तरह चाहता था मैं
वो बात करती थी और ख़्वाब देखता था मैं
विसाल का हो कि उस के फ़िराक़ का मौसम
वो लज़्ज़तें थीं कि अंदर से टूटता था मैं
चढ़ा हुआ था वो नश्शा कि कम न होता था
हज़ार बार उभरता था डूबता था मैं
बदन का खेल थीं उस की मोहब्बतें लेकिन
जो भेद जिस्म के थे जाँ से खोलता था मैं
फिर इस तरह कभी सोया न इस तरह जागा
कि रूह नींद में थी और जागता था मैं
कहाँ शिकस्त हुई और कहाँ सिला पाया
किसी का इश्क़ किसी से निबाहता था मैं
मैं अहल-ए-ज़र के मुक़ाबिल में था फ़क़त शाएर
मगर मैं जीत गया लफ़्ज़ हारता था मैं
अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाए उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाए
अब इस क़दर भी न चाहो कि दम निकल जाए
मिले हैं यूँ तो बहुत आओ अब मिलें यूँ भी
कि रूह गर्मी-ए-अनफ़ास से पिघल जाए
मोहब्बतों में अजब है दिलों को धड़का सा
कि जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाए
ज़हे वो दिल जो तमन्ना-ए-ताज़ा-तर में रहे
ख़ोशा वो उम्र जो ख़्वाबों ही में बहल जाए
मैं वो चराग़ सर-ए-रहगुज़ार-ए-दुनिया हूँ
जो अपनी ज़ात की तन्हाइयों में जल जाए
हर एक लहज़ा यही आरज़ू यही हसरत
जो आग दिल में है वो शेर में भी ढल जाए
अज़ाब आए थे ऐसे कि फिर न घर से गए उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
अज़ाब आए थे ऐसे कि फिर न घर से गए
वो ज़िंदा लोग मिरे घर के जैसे मर से गए
हज़ार तरह के सदमे उठाने वाले लोग
न जाने क्या हुआ इक आन में बिखर से गए
बिछड़ने वालों का दुख हो तो सोच लेना यही
कि इक नवा-ए-परेशाँ थे रहगुज़र से गए
हज़ार राह चले फिर वो रहगुज़र आई
कि इक सफ़र में रहे और हर सफ़र से गए
कभी वो जिस्म हुआ और कभी वो रूह तमाम
उसी के ख़्वाब थे आँखों में हम जिधर से गए
ये हाल हो गया आख़िर तिरी मोहब्बत में
कि चाहते हैं तुझे और तिरी ख़बर से गए
मिरा ही रंग थे तो क्यूँ न बस रहे मुझ में
मिरा ही ख़्वाब थे तो क्यूँ मिरी नज़र से गए
जो ज़ख़्म ज़ख़्म-ए-ज़बाँ भी है और नुमू भी है
तो फिर ये वहम है कैसा कि हम हुनर से गए
आओ तुम ही करो मसीहाई उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
आओ तुम ही करो मसीहाई
अब बहलती नहीं है तन्हाई
तुम गए थे तो साथ ले जाते
अब ये किस काम की है बीनाई
हम कि थे लज़्ज़त-ए-हयात में गुम
जाँ से इक मौज-ए-तिश्नगी आई
हम-सफ़र ख़ुश न हो मोहब्बत से
जाने हम किस के हों तमन्नाई
कोई दीवाना कहता जाता था
ज़िंदगी ये नहीं मिरे भाई
अव्वल-ए-इश्क़ में ख़बर भी न थी
इज़्ज़तें बख़्शती है रुस्वाई
कैसे पाओ मुझे जो तुम देखो
सतह-ए-साहिल से मेरी गहराई
जिन में हम खेल कर जवान हुए
वही गलियाँ हुईं तमाशाई
ऐसी तेज़ हवा और ऐसी रात नहीं देखी उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
ऐसी तेज़ हवा और ऐसी रात नहीं देखी
लेकिन हम ने मौला जैसी ज़ात नहीं देखी
उस की शान-ए-अजीब का मंज़र देखने वाला है
इक ऐसा ख़ुर्शीद कि जिस ने रात नहीं देखी
बिस्तर पर मौजूद रहे और सैर-ए-हफ़्त-अफ़्लाक
ऐसी किसी पर रहमत की बरसात नहीं देखी
उस की आल वही जो उस के नक़्श-ए-क़दम पर
सिर्फ़ ज़ात की हम ने आल-ए-सादात नहीं देखी
एक शजर है जिस की शाख़ें फैलती जाती हैं
किसी शजर में हम ने ऐसी बात नहीं देखी
इक दरिया-ए-रहमत है जो बहता जाता है
ये शान-ए-बरकात किसी के साथ नहीं देखी
शाहों की तारीख़ भी हम ने देखी है लेकिन
उस के दर के गदाओं वाली बात नहीं देखी
उस के नाम पे मारें खाना अब एज़ाज़ हमारा
और किसी की ये इज़्ज़त-औक़ात नहीं देखी
सदियों की इस धूप छाँव में कोई हमें बतलाए
पूरी हुई कौन सी उस की बात नहीं देखी
अहल-ए-ज़मीं ने कौन सा हम पर ज़ुल्म नहीं ढाया
कौन सी नुसरत हम ने उस के हाथ नहीं देखी
कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी सो मैं ने जीवन वार दिया उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी सो मैं ने जीवन वार दिया
मैं कैसा ज़िंदा आदमी था इक शख़्स ने मुझ को मार दिया
इक सब्ज़ शाख़ गुलाब की था इक दुनिया अपने ख़्वाब की था
वो एक बहार जो आई नहीं उस के लिए सब कुछ हार दिया
ये सजा-सजाया घर साथी मिरी ज़ात नहीं मिरा हाल नहीं
ऐ काश कभी तुम जान सको जो इस सुख ने आज़ार दिया
मैं खुली हुई इक सच्चाई मुझे जानने वाले जानते हैं
मैं ने किन लोगों से नफ़रत की और किन लोगों को प्यार दिया
वो इश्क़ बहुत मुश्किल था मगर आसान न था यूँ जीना भी
उस इश्क़ ने ज़िंदा रहने का मुझे ज़र्फ़ दिया पिंदार दिया
मैं रोता हूँ और आसमान से तारे टूटते देखता हूँ
उन लोगों पर जिन लोगों ने मिरे लोगों को आज़ार दिया
मिरे बच्चों को अल्लाह रखे इन ताज़ा हवा के झोंकों ने
मैं ख़ुश्क पेड़ ख़िज़ाँ का था मुझे कैसा बर्ग-ओ-बार दिया
कुछ दिन तो बसो मिरी आँखों में उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
कुछ दिन तो बसो मिरी आँखों में
फिर ख़्वाब अगर हो जाओ तो क्या
कोई रंग तो दो मिरे चेहरे को
फिर ज़ख़्म अगर महकाओ तो क्या
जब हम ही न महके फिर साहब
तुम बाद-ए-सबा कहलाओ तो क्या
इक आइना था सो टूट गया
अब ख़ुद से अगर शरमाओ तो क्या
तुम आस बंधाने वाले थे
अब तुम भी हमें ठुकराओ तो क्या
दुनिया भी वही और तुम भी वही
फिर तुम से आस लगाओ तो क्या
मैं तन्हा था मैं तन्हा हूँ
तुम आओ तो क्या न आओ तो क्या
जब देखने वाला कोई नहीं
बुझ जाओ तो क्या गहनाओ तो क्या
अब वहम है ये दुनिया इस में
कुछ खोओ तो क्या और पाओ तो क्या
है यूँ भी ज़ियाँ और यूँ भी ज़ियाँ
जी जाओ तो क्या मर जाओ तो क्या
कोई धुन हो मैं तिरे गीत ही गाए जाऊँ उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
कोई धुन हो मैं तिरे गीत ही गाए जाऊँ
दर्द सीने में उठे शोर मचाए जाऊँ
ख़्वाब बन कर तू बरसता रहे शबनम शबनम
और बस मैं इसी मौसम में नहाए जाऊँ
तेरे ही रंग उतरते चले जाएँ मुझ में
ख़ुद को लिक्खूँ तिरी तस्वीर बनाए जाऊँ
जिस को मिलना नहीं फिर उस से मोहब्बत कैसी
सोचता जाऊँ मगर दिल में बसाए जाऊँ
अब तू उस की हुई जिस पे मुझे प्यार आता है
ज़िंदगी आ तुझे सीने से लगाए जाऊँ
यही चेहरे मिरे होने की गवाही देंगे
हर नए हर्फ़ में जाँ अपनी समाए जाऊँ
जान तो चीज़ है क्या रिश्ता-ए-जाँ से आगे
कोई आवाज़ दिए जाए मैं आए जाऊँ
शायद इस राह पे कुछ और भी राही आएँ
धूप में चलता रहूँ साए बिछाए जाऊँ
अहल-ए-दिल होंगे तो समझेंगे सुख़न को मेरे
बज़्म में आ ही गया हूँ तो सुनाए जाऊँ
ख़्वाब ही ख़्वाब कब तलक देखूँ उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
ख़्वाब ही ख़्वाब कब तलक देखूँ
काश तुझ को भी इक झलक देखूँ
चाँदनी का समाँ था और हम तुम
अब सितारे पलक पलक देखूँ
जाने तू किस का हम-सफ़र होगा
मैं तुझे अपनी जाँ तलक देखूँ
बंद क्यूँ ज़ात में रहूँ अपनी
मौज बन जाऊँ और छलक देखूँ
सुब्ह में देर है तो फिर इक बार
शब के रुख़्सार से ढलक देखूँ
उन के क़दमों तले फ़लक और मैं
सिर्फ़ पहनाई-ए-फ़लक देखूँ
ज़मीन जब भी हुई कर्बला हमारे लिए उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
ज़मीन जब भी हुई कर्बला हमारे लिए
तो आसमान से उतरा ख़ुदा हमारे लिए
उन्हें ग़ुरूर कि रखते हैं ताक़त ओ कसरत
हमें ये नाज़ बहुत है ख़ुदा हमारे लिए
तुम्हारे नाम पे जिस आग में जलाए गए
वो आग फूल है वो कीमिया हमारे लिए
बस एक लौ में उसी लो के गिर्द घूमते हैं
जला रखा है जो उस ने दिया हमारे लिए
वो जिस पे रात सितारे लिए उतरती है
वो एक शख़्स दुआ ही दुआ हमारे लिए
वो नूर नूर दमकता हुआ सा इक चेहरा
वो आईनों में हया ही हया हमारे लिए
दरूद पढ़ते हुए उस की दीद को निकलें
तो सुब्ह फूल बिछाए सबा हमारे लिए
अजीब कैफ़ियत-ए-जज़्ब-ओ-हाल रखती है
तुम्हारे शहर की आब-ओ-हवा हमारे लिए
दिए जलाए हुए साथ साथ रहती है
तुम्हारी याद तुम्हारी दुआ हमारे लिए
ज़मीन है न ज़माँ नींद है न बे-दारी
वो छाँव छाँव सा इक सिलसिला हमारे लिए
सुख़न-वरों में कहीं एक हम भी थे लेकिन
सुख़न का और ही था ज़ाइक़ा हमारे लिए
जवानी क्या हुई इक रात की कहानी हुई उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
जवानी क्या हुई इक रात की कहानी हुई
बदन पुराना हुआ रूह भी पुरानी हुई
कोई अज़ीज़ नहीं मा-सिवा-ए-ज़ात हमें
अगर हुआ है तो यूँ जैसे ज़िंदगानी हुई
न होगी ख़ुश्क कि शायद वो लौट आए फिर
ये किश्त गुज़रे हुए अब्र की निशानी हुई
तुम अपने रंग नहाओ मैं अपनी मौज उड़ूँ
वो बात भूल भी जाओ जो आनी-जानी हुई
मैं उस को भूल गया हूँ वो मुझ को भूल गया
तो फिर ये दिल पे क्यूँ दस्तक सी ना-गहानी हुई
कहाँ तक और भला जाँ का हम ज़ियाँ करते
बिछड़ गया है तो ये उस की मेहरबानी हुई
जो उस ने किया उसे सिला दे उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
जो उस ने किया उसे सिला दे
मौला मुझे सब्र की जज़ा दे
या मेरे दिए की लौ बढ़ा दे
या रात को सुब्ह से मिला दे
सच हूँ तो मुझे अमर बना दे
झूटा हूँ तो नक़्श सब मिटा दे
ये क़ौम अजीब हो गई है
इस क़ौम को ख़ू-ए-अम्बिया दे
उतरेगा न कोई आसमाँ से
इक आस में दिल मगर सदा दे
बच्चों की तरह ये लफ़्ज़ मेरे
माबूद इन्हें बोलना सिखा दे
दुख दहर के अपने नाम लिक्खूँ
हर दुख मुझे ज़ात का मज़ा दे
इक मेरा वजूद सुन रहा है
इल्हाम जो रात की हवा दे
मुझ से मिरा कोई मिलने वाला
बिछड़ा तो नहीं मगर मिला दे
चेहरा मुझे अपना देखने को
अब दस्त-ए-हवस में आईना दे
जिस शख़्स ने उम्र-ए-हिज्र काटी
उस शख़्स को एक रात क्या दे
दुखता है बदन कि फिर मिले वो
मिल जाए तो रूह को दिखा दे
क्या चीज़ है ख़्वाहिश-ए-बदन भी
हर बार नया ही ज़ाइक़ा दे
छूने में ये डर कि मर न जाऊँ
छू लूँ तो वो ज़िंदगी सिवा दे
तू अपनी आवाज़ में गुम है मैं अपनी आवाज़ में चुप उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
तू अपनी आवाज़ में गुम है मैं अपनी आवाज़ में चुप
दोनों बीच खड़ी है दुनिया आईना-ए-अल्फ़ाज़ में चुप
अव्वल अव्वल बोल रहे थे ख़्वाब-भरी हैरानी में
फिर हम दोनों चले गए पाताल से गहरे राज़ में चुप
ख़्वाब-सरा-ए-ज़ात में ज़िंदा एक तो सूरत ऐसी है
जैसे कोई देवी बैठी हो हुजरा-ए-राज़-ओ-नियाज़ में चुप
अब कोई छू के क्यूँ नहीं आता उधर सिरे का जीवन-अंग
जानते हैं पर क्या बतलाएँ लग गई क्यूँ पर्वाज़ में चुप
फिर ये खेल-तमाशा सारा किस के लिए और क्यूँ साहब
जब इस के अंजाम में चुप है जब इस के आग़ाज़ में चुप
नींद-भरी आँखों से चूमा दिए ने सूरज को और फिर
जैसे शाम को अब नहीं जलना खींच ली इस अंदाज़ में चुप
ग़ैब-समय के ज्ञान में पागल कितनी तान लगाएगा
जितने सुर हैं साज़ से बाहर उस से ज़ियादा साज़ में चुप
तेरे प्यार में रुस्वा हो कर जाएँ कहाँ दीवाने लोग उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
तेरे प्यार में रुस्वा हो कर जाएँ कहाँ दीवाने लोग
जाने क्या क्या पूछ रहे हैं ये जाने-पहचाने लोग
हर लम्हा एहसास की सहबा रूह में ढलती जाती है
ज़ीस्त का नश्शा कुछ कम हो तो हो आएँ मय-ख़ाने लोग
जैसे तुम्हें हम ने चाहा है कौन भला यूँ चाहेगा
माना और बहुत आएँगे तुम से प्यार जताने लोग
यूँ गलियों बाज़ारों में आवारा फिरते रहते हैं
जैसे इस दुनिया में सभी आए हों उम्र गँवाने लोग
आगे पीछे दाएँ बाएँ साए से लहराते हैं
दुनिया भी तो दश्त-ए-बला है हम ही नहीं दीवाने लोग
कैसे दुखों के मौसम आए कैसी आग लगी यारो
अब सहराओं से लाते हैं फूलों के नज़राने लोग
कल मातम बे-क़ीमत होगा आज उन की तौक़ीर करो
देखो ख़ून-ए-जिगर से क्या क्या लिखते हैं अफ़्साने लोग
दिल ही थे हम दुखे हुए तुम ने दुखा लिया तो क्या उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
दिल ही थे हम दुखे हुए तुम ने दुखा लिया तो क्या
तुम भी तो बे-अमाँ हुए हम को सता लिया तो क्या
आप के घर में हर तरफ़ मंज़र-ए-माह-ओ-आफ़्ताब
एक चराग़-ए-शाम अगर मैं ने जला लिया तो क्या
बाग़ का बाग़ आप की दस्तरस-ए-हवस में है
एक ग़रीब ने अगर फूल उठा लिया तो क्या
लुत्फ़ ये है कि आदमी आम करे बहार को
मौज-ए-हवा-ए-रंग में आप नहा लिया तो क्या
अब कहीं बोलता नहीं ग़ैब जो खोलता नहीं
ऐसा अगर कोई ख़ुदा तुम ने बना लिया तो क्या
जो है ख़ुदा का आदमी उस की है सल्तनत अलग
ज़ुल्म ने ज़ुल्म से अगर हाथ मिला लिया तो क्या
आज की है जो कर्बला कल पे है उस का फ़ैसला
आज ही आप ने अगर जश्न मना लिया तो क्या
लोग दुखे हुए तमाम रंग बुझे हुए तमाम
ऐसे में अहल-ए-शाम ने शहर सजा लिया तो क्या
पढ़ता नहीं है अब कोई सुनता नहीं है अब कोई
हर्फ़ जगा लिया तो क्या शेर सुना लिया तो क्या
दुखे हुए हैं हमें और अब दुखाओ मत उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
दुखे हुए हैं हमें और अब दुखाओ मत
जो हो गए हो फ़साना तो याद आओ मत
ख़याल-ओ-ख़्वाब में परछाइयाँ सी नाचती हैं
अब इस तरह तो मिरी रूह में समाओ मत
ज़मीं के लोग तो क्या दो दिलों की चाहत में
ख़ुदा भी हो तो उसे दरमियान लाओ मत
तुम्हारा सर नहीं तिफ़्लान-ए-रह-गुज़र के लिए
दयार-ए-संग में घर से निकल के जाओ मत
सिवाए अपने किसी के भी हो नहीं सकते
हम और लोग हैं लोगो हमें सताओ मत
हमारे अहद में ये रस्म-ए-आशिक़ी ठहरी
फ़क़ीर बन के रहो और सदा लगाओ मत
वही लिखो जो लहू की ज़बाँ से मिलता है
सुख़न को पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ में छुपाओ मत
सुपुर्द कर ही दिया आतिश-ए-हुनर के तो फिर
तमाम ख़ाक ही हो जाओ कुछ बचाओ मत
नींद आँखों से उड़ी फूल से ख़ुश्बू की तरह उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
नींद आँखों से उड़ी फूल से ख़ुश्बू की तरह
जी बहल जाएगा शब से तिरे गेसू की तरह
दोस्तो जश्न मनाओ कि बहार आई है
फूल गिरते हैं हर इक शाख़ से आँसू की तरह
मेरी आशुफ़्तगी-ए-शौक़ में इक हुस्न भी है
तेरे आरिज़ पे मचलते हुए गेसू की तरह
अब तिरे हिज्र में लज़्ज़त न तिरे वस्ल में लुत्फ़
इन दिनों ज़ीस्त है ठहरे हुए आँसू की तरह
ज़िंदगी की यही क़ीमत है कि अर्ज़ां हो जाओ
नग़्मा-ए-दर्द लिए मौजा-ए-ख़ुश्बू की तरह
किस को मालूम नहीं कौन था वो शख़्स 'अलीम'
जिस की ख़ातिर रहे आवारा हम आहू की तरह
बना गुलाब तो काँटे चुभा गया इक शख़्स उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
बना गुलाब तो काँटे चुभा गया इक शख़्स
हुआ चराग़ तो घर ही जला गया इक शख़्स
तमाम रंग मिरे और सारे ख़्वाब मिरे
फ़साना थे कि फ़साना बना गया इक शख़्स
मैं किस हवा में उड़ूँ किस फ़ज़ा में लहराऊँ
दुखों के जाल हर इक सू बिछा गया इक शख़्स
पलट सकूँ ही न आगे ही बढ़ सकूँ जिस पर
मुझे ये कौन से रस्ते लगा गया इक शख़्स
मोहब्बतें भी अजब उस की नफ़रतें भी कमाल
मिरी ही तरह का मुझ में समा गया इक शख़्स
मोहब्बतों ने किसी की भुला रखा था उसे
मिले वो ज़ख़्म कि फिर याद आ गया इक शख़्स
खुला ये राज़ कि आईना-ख़ाना है दुनिया
और उस में मुझ को तमाशा बना गया इक शख़्स
बाहर का धन आता जाता असल ख़ज़ाना घर में है उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
बाहर का धन आता जाता असल ख़ज़ाना घर में है
हर धूप में जो मुझे साया दे वो सच्चा साया घर में है
पाताल के दुख वो क्या जानें जो सत्ह पे हैं मिलने वाले
हैं एक हवाला दोस्त मिरे और एक हवाला घर में है
मिरी उम्र के इक इक लम्हे को मैं ने क़ैद किया है लफ़्ज़ों में
जो हारा हूँ या जीता हूँ वो सब सरमाया घर में है
तू नन्हा-मुन्ना एक दिया मैं एक समुंदर अँधियारा
तू जलते जलते बुझने लगा और फिर भी अँधेरा घर में है
क्या स्वाँग भरे रोटी के लिए इज़्ज़त के लिए शोहरत के लिए
सुनो शाम हुई अब घर को चलो कोई शख़्स अकेला घर में है
इक हिज्र-ज़दा बाबुल पियारी तिरे जागते बच्चों से हारी
ऐ शाएर किस दुनिया में है तू तिरी तन्हा दुनिया घर में है
दुनिया में खपाए साल कई आख़िर में खुला अहवाल यही
वो घर का हो या बाहर का हर दुख का मुदावा घर में है
मिट्टी था मैं ख़मीर तिरे नाज़ से उठा उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
मिट्टी था मैं ख़मीर तिरे नाज़ से उठा
फिर हफ़्त-आसमाँ मिरी पर्वाज़ से उठा
इंसान हो किसी भी सदी का कहीं का हो
ये जब उठा ज़मीर की आवाज़ से उठा
सुब्ह-ए-चमन में एक यही आफ़्ताब था
इस आदमी की लाश को एज़ाज़ से उठा
सौ करतबों से लिख्खा गया एक एक लफ़्ज़
लेकिन ये जब उठा किसी एजाज़ से उठा
ऐ शहसवार-ए-हुस्न ये दिल है ये मेरा दिल
ये तेरी सर-ज़मीं है क़दम नाज़ से उठा
मैं पूछ लूँ कि क्या है मिरा जब्र ओ इख़्तियार
या-रब ये मसअला कभी आग़ाज़ से उठा
वो अब्र शबनमी था कि नहला गया वजूद
मैं ख़्वाब देखता हुआ अल्फ़ाज़ से उठा
शाएर की आँख का वो सितारा हुआ 'अलीम'
क़ामत में जो क़यामती अंदाज़ से उठा
मैं जिस में खो गया हूँ मिरा ख़्वाब ही तो है उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
मैं जिस में खो गया हूँ मिरा ख़्वाब ही तो है
यक दो नफ़स नुमूद सही ज़िंदगी तो है
जलती है कितनी देर हवाओं में मेरे साथ
इक शम्अ' फिर मिरे लिए रौशन हुई तो है
जिस में भी ढल गई उसे महताब कर गई
मेरे लहू में ऐसी भी इक रौशनी तो है
परछाइयों में डूबता देखूँ भी महर-ए-उम्र
और फिर बचा न पाऊँ ये बेचारगी तो है
तू बू-ए-गुल है और परेशाँ हुआ हूँ मैं
दोनों में एक रिश्ता-ए-आवारगी तो है
ऐ ख़्वाब ख़्वाब उम्र-ए-गुरेज़ाँ की साअ'तो
तुम सुन सको तो बात मिरी गुफ़्तनी तो है
ये और बात कि इस अहद की नज़र में हूँ उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
ये और बात कि इस अहद की नज़र में हूँ
अभी मैं क्या कि अभी मंज़िल-ए-सफ़र में हूँ
अभी नज़र नहीं ऐसी कि दूर तक देखूँ
अभी ख़बर नहीं मुझ को कि किस असर में हूँ
पिघल रहे हैं जहाँ लोग शो'ला-ए-जाँ से
शरीक मैं भी इसी महफ़िल-ए-हुनर में हूँ
जो चाहे सज्दा गुज़ारे जो चाहे ठुकरा दे
पड़ा हुआ मैं ज़माने की रहगुज़र में हूँ
जो साया हो तो डरूँ और धूप हो तो जलूँ
कि एक नख़्ल-ए-नुमू ख़ाक-ए-नौहा-गर में हूँ
किरन किरन कभी ख़ुर्शीद बन के निकलूँगा
अभी चराग़ की सूरत में अपने घर में हूँ
बिछड़ गई है वो ख़ुश्बू उजड़ गया है वो रंग
बस अब तो ख़्वाब सा कुछ अपनी चश्म-ए-तर में हूँ
वहशत उसी से फिर भी वही यार देखना उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
वहशत उसी से फिर भी वही यार देखना
पागल को जैसे चाँद का दीदार देखना
इस हिज्रती को काम हुआ है कि रात दिन
बस वो चराग़ और वो दीवार देखना
पाँव में घूमती है ज़मीं आसमाँ तलक
इस तिफ़्ल-ए-शीर-ख़्वार की रफ़्तार देखना
या-रब कोई सितारा-ए-उम्मीद फिर तुलू
क्या हो गए ज़मीन के आसार देखना
लगता है जैसे कोई वली है ज़ुहूर में
अब शाम को कहीं कोई मय-ख़्वार देखना
इस वहशती का हाल अजब है कि उस तरफ़
जाना भी और जानिब-ए-पिंदार देखना
देखा था ख़्वाब शायर-ए-मोमिन ने इस लिए
ताबीर में मिला हमें तलवार देखना
जो दिल को है ख़बर कहीं मिलती नहीं ख़बर
हर सुब्ह इक अज़ाब है अख़बार देखना
मैं ने सुना है क़ुर्ब-ए-क़यामत का है निशाँ
बे-क़ामती पे जुब्बा-ओ-दस्तार देखना
सदियाँ गुज़र रही हैं मगर रौशनी वही
ये सर है या चराग़ सर-ए-दार देखना
इस क़ाफ़िले ने देख लिया कर्बला का दिन
अब रह गया है शाम का बाज़ार देखना
दो चार के सिवा यहाँ लिखता ग़ज़ल है कौन
ये कौन हैं ये किस के तरफ़-दार देखना
वहशतें कैसी हैं ख़्वाबों से उलझता क्या है उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
वहशतें कैसी हैं ख़्वाबों से उलझता क्या है
एक दुनिया है अकेली तू ही तन्हा क्या है
दाद दे ज़र्फ़-ए-समाअत तो करम है वर्ना
तिश्नगी है मिरी आवाज़ की नग़्मा क्या है
बोलता है कोई हर-आन लहू में मेरे
पर दिखाई नहीं देता ये तमाशा क्या है
जिस तमन्ना में गुज़रती है जवानी मेरी
मैं ने अब तक नहीं जाना वो तमन्ना क्या है
ये मिरी रूह का एहसास है आँखें क्या हैं
ये मिरी ज़ात का आईना है चेहरा क्या है
काश देखो कभी टूटे हुए आईनों को
दिल शिकस्ता हो तो फिर अपना पराया क्या है
ज़िंदगी की ऐ कड़ी धूप बचा ले मुझ को
पीछे पीछे ये मिरे मौत का साया क्या है
वीरान सराए का दिया है उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
वीरान सराए का दिया है
जो कौन-ओ-मकाँ में जल रहा है
ये कैसी बिछड़ने की सज़ा है
आईने में चेहरा रख गया है
ख़ुर्शीद मिसाल शख़्स कल शाम
मिट्टी के सुपुर्द कर दिया है
तुम मर गए हौसला तुम्हारा
ज़िंदा हूँ मैं ये मेरा हौसला है
अंदर भी इस ज़मीं के रौशनी हो
मिट्टी में चराग़ रख दिया है
मैं कौन सा ख़्वाब देखता हूँ
ये कौन से मुल्क की फ़ज़ा है
वो कौन सा हाथ है कि जिस ने
मुझ आग को ख़ाक से लिखा है
रक्खा था ख़ला में पाँव मैं ने
रस्ते में सितारा आ गया है
शायद कि ख़ुदा में और मुझ में
इक जस्त का और फ़ासला है
गर्दिश में हैं कितनी काएनातें
बच्चा मिरा पाँव चल रहा है
वो रात बे-पनाह थी और मैं ग़रीब था उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
वो रात बे-पनाह थी और मैं ग़रीब था
वो जिस ने ये चराग़ जलाया अजीब था
वो रौशनी कि आँख उठाई नहीं गई
कल मुझ से मेरा चाँद बहुत ही क़रीब था
देखा मुझे तो तब्अ रवाँ हो गई मिरी
वो मुस्कुरा दिया तो मैं शायर अदीब था
रखता न क्यूँ मैं रूह ओ बदन उस के सामने
वो यूँ भी था तबीब वो यूँ भी तबीब था
हर सिलसिला था उस का ख़ुदा से मिला हुआ
चुप हो कि लब-कुशा हो बला का ख़तीब था
मौज-ए-नशात ओ सैल-ए-ग़म-ए-जाँ थे एक साथ
गुलशन में नग़्मा-संज अजब अंदलीब था
मैं भी रहा हूँ ख़ल्वत-ए-जानाँ में एक शाम
ये ख़्वाब है या वाक़ई मैं ख़ुश-नसीब था
हर्फ़-ए-दुआ ओ दस्त-ए-सख़ावत के बाब में
ख़ुद मेरा तजरबा है वो बे-हद नजीब था
देखा है उस को ख़ल्वत ओ जल्वत में बार-हा
वो आदमी बहुत ही अजीब-ओ-ग़रीब था
लिक्खो तमाम उम्र मगर फिर भी तुम 'अलीम'
उस को दिखा न पाओ वो ऐसा हबीब था
सुख़न में सहल नहीं जाँ निकाल कर रखना उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
सुख़न में सहल नहीं जाँ निकाल कर रखना
ये ज़िंदगी है हमारी सँभाल कर रखना
खुला कि इश्क़ नहीं है कुछ और इस के सिवा
रज़ा-ए-यार जो हो अपना हाल कर रखना
उसी का काम है फ़र्श-ए-ज़मीं बिछा देना
उसी का काम सितारे उछाल कर रखना
उसी का काम है इस दुख-भरे ज़माने में
मोहब्बतों से मुझे माला-माल कर रखना
बस एक कैफ़ियत-ए-दिल में बोलते रहना
बस एक नश्शे में ख़ुद को निहाल कर रखना
बस एक क़ामत-ए-ज़ेबा के ख़्वाब में रहना
बसा एक शख़्स को हद्द-ए-मिसाल कर रखना
गुज़रना हुस्न की नज़्ज़ारगी से पल-भर को
फिर उस को ज़ाइक़ा-ए-ला-ज़वाल कर रखना
किसी के बस में नहीं था किसी के बस में नहीं
बुलंदियों को सदा पाएमाल कर रखना
हँसो तो रंग हूँ चेहरे का रोओ तो चश्म-ए-नम में हूँ उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
हँसो तो रंग हूँ चेहरे का रोओ तो चश्म-ए-नम में हूँ
तुम मुझ को महसूस करो तो हर मौसम में हूँ
चाहा था जिसे वो मिल भी गया पर ख़्वाब भरे हैं आँखों में
ऐ मेरे लहू की लहर बता अब कौन से मैं आलम में हूँ
लोग मोहब्बत करने वाले देखेंगे तस्वीर अपनी
एक शुआ-ए-आवारा हूँ आईना-ए-शबनम में हूँ
उस लम्हे तो गर्दिश-ए-ख़ूँ ने मेरी ये महसूस किया
जैसे सर पे ज़मीं उठाए इक रक़्स-ए-पैहम में हूँ
यार मिरा ज़ंजीरें पहने आया है बाज़ारों में
मैं कि तमाशा देखने वाले लोगों के मातम में हूँ
जो लिक्खे वो ख़्वाब मिरे अब आँखों आँखों ज़िंदा हैं
जो अब तक नहीं लिख पाया मैं उन ख़्वाबों के ग़म में हूँ
हर आवाज़ ज़मिस्तानी है हर जज़्बा ज़िंदानी है उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
हर आवाज़ ज़मिस्तानी है हर जज़्बा ज़िंदानी है
कूचा-ए-यार से दार-ओ-रसन तक एक सी ही वीरानी है
कितने कोह-ए-गिराँ काटे तब सुब्ह-ए-तरब की दीद हुई
और ये सुब्ह-ए-तरब भी यारो कहते हैं बेगानी है
जितने आग के दरिया में सब पार हमीं को करना हैं
दुनिया किस के साथ आई है दुनिया तो दीवानी है
लम्हा लम्हा ख़्वाब दिखाए और सौ सौ ता'बीर करे
लज़्ज़त-ए-कम-आज़ार बहुत है जिस का नाम जवानी है
दिल कहता है वो कुछ भी हो उस की याद जगाए रख
अक़्ल ये कहती है कि तवहहुम पर जीना नादानी है
तेरे प्यार से पहले कब था दिल में ऐसा सोज़-ओ-गुदाज़
तुझ से प्यार किया तो हम ने अपनी क़ीमत जानी है
आप भी कैसे शहर में आ कर शाइर कहलाए हैं 'अलीम'
दर्द जहाँ कमयाब बहुत है नग़्मों की अर्ज़ानी है
हिज्र करते या कोई वस्ल गुज़ारा करते उबैदुल्लाह अलीम ग़ज़ल / Obaidullah Aleem Ghazal
हिज्र करते या कोई वस्ल गुज़ारा करते
हम बहर-हाल बसर ख़्वाब तुम्हारा करते
एक ऐसी भी घड़ी इश्क़ में आई थी कि हम
ख़ाक को हाथ लगाते तो सितारा करते
अब तो मिल जाओ हमें तुम कि तुम्हारी ख़ातिर
इतनी दूर आ गए दुनिया से किनारा करते
मेहव-ए-आराइश-ए-रुख़ है वो क़यामत सर-ए-बाम
आँख अगर आईना होती तो नज़ारा करते
एक चेहरे में तो मुमकिन नहीं इतने चेहरे
किस से करते जो कोई इश्क़ दोबारा करते
जब है ये ख़ाना-ए-दिल आप की ख़ल्वत के लिए
फिर कोई आए यहाँ कैसे गवारा करते
कौन रखता है अँधेरे में दिया आँख में ख़्वाब
तेरी जानिब ही तिरे लोग इशारा करते
ज़र्फ़-ए-आईना कहाँ और तिरा हुस्न कहाँ
हम तिरे चेहरे से आईना सँवारा करते
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