नक़्श दिल पर कैसी कैसी सूरतों का रह गया / 'मुज़फ्फ़र' वारसी

नक़्श दिल पर कैसी कैसी सूरतों का रह गया
कितनी लहरें हम-सफ़र थीं फिर भी प्यासा रह गया

कैसी कैसी ख़्वाहिशें मुझ से जुदा होती गईं
किस क़दर आबाद था और कितना तंहा रह गया

ढूँढने निकला था आवाज़ों की बस्ती में उसे
सोच कर वीराँ गुज़र-गाहों पे बैठा रह गया

उस से मिलना याद है मिल कर बिछड़ना याद है
क्या बता सकता हूँ क्या जाता रहा क्या रह गया

मैं ये कहता हूँ के हर रुख़ से बसर की ज़िंदगी
ज़िंदगी कहती है हर पहलू अधूरा रह गया

अहद-ए-रफ़्ता की खुदाई किस क़दर महँगी पड़ी
जिस जगह ऊँची इमारत थी गढ़ा सा रह गया

सिर्फ़ इतनी है 'मुज़फ़्फ़र' अपनी रूदाद-ए-हयात
मैं ज़माने को ज़माना मुझ को तकता रह गया

श्रेणी: ग़ज़ल

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