मेरी सोच मुझे किस रुतबे पर ले आई / 'मुज़फ्फ़र' वारसी

मेरी सोच मुझे किस रुतबे पर ले आई
दाइर-ए-हस्ती इक नुक़्ते पर ले आई

जब दुनिया को मैं ने कोर-ए-नज़र ठहराया
मेरी आँखें अपने चेहरे पर ले आई

मैं तो इक सीधी पगडंडी पर निकला था
पगडंडी मुझ को चौराहे पर ले आई

यूँ महसूस हुआ अपनी गहराई में जा कर
जैसे कोई मौज किनारे पर ले आई

सहरा में भी दीवारें सी फ़ाँद रहा हूँ
बीनाई किस अँधे रस्ते पर ले आई

मैं ने नोच के फेंकीं जो शिकनें चादर से
वो सब शिकनें दुनिया माथे पर ले आई

काहकशाँ के ख़्वाब 'मुज़फ़्फ़र' देख रहा था
और बेदारी रेत के टीले पर ले आई

श्रेणी: ग़ज़ल

Comments

Popular posts from this blog

Ye Naina Ye Kajal / ये नैना, ये काजल, ये ज़ुल्फ़ें, ये आँचल

Mira Bai Ke Pad Arth Vyakhya मीराबाई के पद अर्थ सहित

अल्लामा इक़बाल ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal