ज़ुहूर-ए-कश्फ़-ओ-करामात में पड़ा हुआ हूँ / अंजुम सलीमी
ज़ुहूर-ए-कश्फ़-ओ-करामात में पड़ा हुआ हूँ
अभी मैं अपने हिजाबात में पड़ा हुआ हूँ
मुझे यक़ीं ही नहीं आ रहा के ये मैं हूँ
अजब तवहहुम ओ शुबहात में पड़ा हुआ हूँ
गुज़र रही है मुझे रौंदती हुई दुनिया
क़दीम ओ कोहना रवायात में पड़ा हुआ हूँ
बचाव का कोई रस्ता नहीं बचा मुझ में
मैं अपने ख़ाना-ए-शह-मात में पड़ा हुआ हूँ
मैं अपने दिल पे बहुत ज़ुल्म करने वाला था
सो अब जहान-ए-मकाफ़ात में पड़ा हुआ हूँ
श्रेणी: ग़ज़ल
अभी मैं अपने हिजाबात में पड़ा हुआ हूँ
मुझे यक़ीं ही नहीं आ रहा के ये मैं हूँ
अजब तवहहुम ओ शुबहात में पड़ा हुआ हूँ
गुज़र रही है मुझे रौंदती हुई दुनिया
क़दीम ओ कोहना रवायात में पड़ा हुआ हूँ
बचाव का कोई रस्ता नहीं बचा मुझ में
मैं अपने ख़ाना-ए-शह-मात में पड़ा हुआ हूँ
मैं अपने दिल पे बहुत ज़ुल्म करने वाला था
सो अब जहान-ए-मकाफ़ात में पड़ा हुआ हूँ
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