दिल का हर ज़ख़्म मोहब्बत का निशाँ हो जैसे / 'उनवान' चिश्ती

दिल का हर ज़ख़्म मोहब्बत का निशाँ हो जैसे
देखने वालों को फूलों का गुमाँ हो जैसे

तेरे क़ुर्बां ये तेरे इश्‍क़ में क्या आलम है
हर नज़र मेरी तरफ़ ही निगराँ हो जैसे

यूँ तेरे क़ुर्ब की फिर आँच सी महसूस हुई
आज फिर शोला-ए-एहसास जवाँ हो जैसे

तीर पर तीर बरसते हैं मगर ना-मालूम
ख़म-ए-अबरू कोई जादू की कमाँ हो जैसे

उन के कूचे पे ये होता है गुमाँ ए ‘उनवाँ’
ये मेरे शौक़ के ख़्वाबों का जहाँ हो जैसे

श्रेणी: ग़ज़ल

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