उसे सुनायें कि खुद ही सुने तराना-ए-दिल / 'महताब' हैदर नक़वी

उसे सुनायें कि खुद ही सुने तराना-ए-दिल
हमें तो याद रहेगा सदा ज़माना-ए-दिल

लगा रहे हैं मज़ामीन-ए-नौ के जो अम्बार
चला रहे थे यही लोग कारखाना-ए-दिल

जो पूछना है गज़ालान-ए-शहर से पूछो
ख़ता हुआ न किसी से कभी निसाना-ए-दिल

किसी के नग़्मा-ए-आशुफ़्तगी से शोर-अंगेज़
यही ख़राबा जो पहले कभी थाख़ाना-ए-दिल

हमेशा दाना-ए-दुर पर निगाह थी लेकिन
तमाम ही नहीं होता था शाख़साना-ए-दिल

कोई दुआ, कोई सजदा,कोई जुनूँ, कोई शौक़
फ़िराक़-ए-यार में कबसे है आसतान-ए-दिल

यही कि होते रहें फिर नये जहाँ आबाद
यही कि सुनते-सुनाते रहें फ़साना-ए-दिल

श्रेणी: ग़ज़ल

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