बज़्म-ए-दुश्‍मन में बुलाते हो ये क्या करते हो / 'बेख़ुद' देहलवी

बज़्म-ए-दुश्‍मन में बुलाते हो ये क्या करते हो
और फिर आँख चुराते हो ये क्या करते हो

बाद मेरे कोई मुझ सा न मिलेगा तुम को
ख़ाक में किस को मिलाते हो ये क्या करते हो

हम तो देते नहीं कुछ ये भी ज़बरदस्ती है
छीन कर दिल लिए जाते हो ये क्या करते हो

कर चुके बस मुझे पामाल अदू के आगे
क्यूँ मेरी ख़ाक उड़ाते हो ये क्या करते हो

छींटे पानी के न दो नींद भरी आँखों पर
सोते फ़ितने को जगाते हो ये क्या करते हो

हो न जाए कहीं दामन का छुड़ाना मुश्‍किल
मुझ को दीवाना बनाते हो ये क्या करते हो

मुहतसिब एक बला-नोश है ऐ पीर-ए-मुगाँ
चाट पर किस को लगाते हो ये क्या करते हो

काम क्या दाग़-ए-सुवैदा का हमारे दिल पर
नक़्श-ए-उल्फ़त को मिटाते हो ये क्या करते हो

फिर उसी मुँह पे नज़ाकत का करोगे दावा
ग़ैर के नाज़ उठाते हो ये क्या करते हो

उस सितम-केश के चकमों में न आना ‘बे-ख़ुद’
हाल-ए-दिल किस को सुनाते हो ये क्या करते हो

श्रेणी: ग़ज़ल

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