अल्लामा इक़बाल ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal


अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal











 हुआ न ज़ोर से उस के कोई गरेबाँ चाक  अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal



हुआ न ज़ोर से उस के कोई गरेबाँ चाक
अगरचे मग़रबियों का जुनूँ भी था चालाक

मय-ए-यक़ीं से ज़मीर-ए-हयात है पुर-सोज़
नसीब-ए-मदरसा या रब ये आब-ए-आतिश-नाक

उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी के मुंतज़िर हैं तमाम
ये कहकशाँ ये सितारे ये नील-गूँ अफ़्लाक

यही ज़माना-ए-हाज़िर की काएनात है क्या
दिमाग़ रौशन ओ दिल तीरा ओ निगह बेबाक

तू बे-बसर हो तो ये माना-ए-निगाह भी है
वगरना आग है मोमिन जहाँ ख़स ओ ख़ाशाक

ज़माना अक़्ल को समझा हुआ है मिशअल-ए-राह
किसे ख़बर कि जुनूँ भी है साहिब-ए-इदराक

जहाँ तमाम है मीरास मर्द-ए-मोमिन की
मिरे कलाम पे हुज्जत है नुक्ता-ए-लौलाक

हादसा वो जो अभी पर्दा-ए-अफ़्लाक में है  अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

हादसा वो जो अभी पर्दा-ए-अफ़्लाक में है
अक्स उस का मिरे आईना-ए-इदराक में है

न सितारे में है ने गर्दिश-ए-अफ़्लाक में है
तेरी तक़दीर मिरे नाला-ए-बेबाक में है

या मिरी आह में ही कोई शरर ज़िंदा नहीं
या ज़रा नम अभी तेरे ख़स-ओ-ख़ाशाक में है

क्या अजब मेरी नवा-हा-ए-सहर-गाही से
ज़िंदा हो जाए वो आतिश जो तिरी ख़ाक में है

तोड़ डालेगी यही ख़ाक तिलिस्म-ए-शब-ओ-रोज़
गरचे उलझी हुई तक़दीर के पेचाक में है

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं 
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं 

तही ज़िंदगी से नहीं ये फ़ज़ाएँ 
यहाँ सैकड़ों कारवाँ और भी हैं 

क़नाअत न कर आलम-ए-रंग-ओ-बू पर 
चमन और भी आशियाँ और भी हैं 

अगर खो गया इक नशेमन तो क्या ग़म 
मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ और भी हैं 

तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा 
तिरे सामने आसमाँ और भी हैं 

इसी रोज़ ओ शब में उलझ कर न रह जा 
कि तेरे ज़मान ओ मकाँ और भी हैं 

गए दिन कि तन्हा था मैं अंजुमन में 
यहाँ अब मिरे राज़-दाँ और भी हैं 


समा सकता नहीं पहना-ए-फ़ितरत में मिरा सौदा अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

समा सकता नहीं पहना-ए-फ़ितरत में मिरा सौदा
ग़लत था ऐ जुनूँ शायद तिरा अंदाज़ा-ए-सहरा

ख़ुदी से इस तिलिस्म-ए-रंग-ओ-बू को तोड़ सकते हैं
यही तौहीद थी जिस को न तू समझा न मैं समझा

निगह पैदा कर ऐ ग़ाफ़िल तजल्ली ऐन-ए-फ़ितरत है
कि अपनी मौज से बेगाना रह सकता नहीं दरिया

रक़ाबत इल्म ओ इरफ़ाँ में ग़लत-बीनी है मिम्बर की
कि वो हल्लाज की सूली को समझा है रक़ीब अपना

ख़ुदा के पाक बंदों को हुकूमत में ग़ुलामी में
ज़िरह कोई अगर महफ़ूज़ रखती है तो इस्तिग़ना

न कर तक़लीद ऐ जिबरील मेरे जज़्ब-ओ-मस्ती की
तन-आसाँ अर्शियों को ज़िक्र ओ तस्बीह ओ तवाफ़ औला

बहुत देखे हैं मैं ने मशरिक़ ओ मग़रिब के मय-ख़ाने
यहाँ साक़ी नहीं पैदा वहाँ बे-ज़ौक़ है सहबा

न ईराँ में रहे बाक़ी न तूराँ में रहे बाक़ी
वो बंदे फ़क़्र था जिन का हलाक-ए-क़ैसर-ओ-किसरा

यही शैख़-ए-हरम है जो चुरा कर बेच खाता है
गिलीम-ए-बू-ज़र ओ दलक़-ए-उवेस ओ चादर-ए-ज़हरा

हुज़ूर-ए-हक़ में इस्राफ़ील ने मेरी शिकायत की
ये बंदा वक़्त से पहले क़यामत कर न दे बरपा

निदा आई कि आशोब-ए-क़यामत से ये क्या कम है
' गिरफ़्ता चीनियाँ एहराम ओ मक्की ख़ुफ़्ता दर बतहा '

लबालब शीशा-ए-तहज़ीब-ए-हाज़िर है मय-ए-ला से
मगर साक़ी के हाथों में नहीं पैमाना-ए-इल्ला

दबा रक्खा है इस को ज़ख़्मा-वर की तेज़-दस्ती ने
बहुत नीचे सुरों में है अभी यूरोप का वावेला

इसी दरिया से उठती है वो मौज-ए-तुंद जौलाँ भी
नहंगों के नशेमन जिस से होते हैं तह ओ बाला

ग़ुलामी क्या है ज़ौक़-ए-हुस्न-ओ-ज़ेबाई से महरूमी
जिसे ज़ेबा कहें आज़ाद बंदे है वही ज़ेबा

भरोसा कर नहीं सकते ग़ुलामों की बसीरत पर
कि दुनिया में फ़क़त मर्दान-ए-हूर की आँख है बीना

वही है साहिब-ए-इमरोज़ जिस ने अपनी हिम्मत से
ज़माने के समुंदर से निकाला गौहर-ए-फ़र्दा

फ़रंगी शीशागर के फ़न से पत्थर होगए पानी
मिरी इक्सीर ने शीशे को बख़्शी सख़्ती-ए-ख़ारा

रहे हैं और हैं फ़िरऔन मेरी घात में अब तक
मगर क्या ग़म कि मेरी आस्तीं में है यद-ए-बैज़ा

वो चिंगारी ख़स ओ ख़ाशाक से किस तरह दब जाए
जिसे हक़ ने किया हो नीस्ताँ के वास्ते पैदा

मोहब्बत ख़ेशतन बीनी मोहब्बत ख़ेशतन दारी
मोहब्बत आस्तान-ए-क़ैसर-ओ-किसरा से बे-परवा

अजब क्या गर मह ओ परवीं मिरे नख़चीर हो जाएँ
' कि बर फ़ितराक-ए-साहिब दौलत-ए-बस्तम सर-ए-ख़ुद रा '

वो दाना-ए-सुबुल ख़त्मुर-रुसुल मौला-ए-कुल जिस ने
ग़ुबार-ए-राह को बख़्शा फ़रोग़-ए-वादी-ए-सीना

निगाह-ए-इश्क़ ओ मस्ती में वही अव्वल वही आख़िर
वही क़ुरआँ वही फ़ुरक़ाँ वही यासीं वही ताहा

'सनाई' के अदब से मैं ने ग़व्वसी न की वर्ना
अभी इस बहर में बाक़ी हैं लाखों लूलू-ए-लाला


हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही 
क्या चाँद तारे क्या मुर्ग़ ओ माही 

तू मर्द-ए-मैदाँ तू मीर-ए-लश्कर 
नूरी हुज़ूरी तेरे सिपाही 

कुछ क़द्र अपनी तू ने न जानी 
ये बे-सवादी ये कम-निगाही 

दुनिया-ए-दूँ की कब तक ग़ुलामी 
या राहेबी कर या पादशाही 

पीर-ए-हरम को देखा है मैं ने 
किरदार-ए-बे-सोज़ गुफ़्तार वाही 


सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर ग़ैर से ग़ाफ़िल हूँ मैं अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर ग़ैर से ग़ाफ़िल हूँ मैं
हाए क्या अच्छी कही ज़ालिम हूँ मैं जाहिल हूँ मैं

मैं जभी तक था कि तेरी जल्वा-पैराई न थी
जो नुमूद-ए-हक़ से मिट जाता है वो बातिल हूँ मैं

इल्म के दरिया से निकले ग़ोता-ज़न गौहर-ब-दस्त
वाए महरूमी ख़ज़फ़ चैन लब साहिल हूँ मैं

है मिरी ज़िल्लत ही कुछ मेरी शराफ़त की दलील
जिस की ग़फ़लत को मलक रोते हैं वो ग़ाफ़िल हूँ मैं

बज़्म-ए-हस्ती अपनी आराइश पे तू नाज़ाँ न हो
तू तो इक तस्वीर है महफ़िल की और महफ़िल हूँ मैं

ढूँढता फिरता हूँ मैं 'इक़बाल' अपने-आप को
आप ही गोया मुसाफ़िर आप ही मंज़िल हूँ मैं


वही मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

वही मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी
मिरे काम कुछ न आया ये कमाल-ए-नै-नवाज़ी

मैं कहाँ हूँ तू कहाँ है ये मकाँ कि ला-मकाँ है
ये जहाँ मिरा जहाँ है कि तिरी करिश्मा-साज़ी

इसी कशमकश में गुज़रीं मिरी ज़िंदगी की रातें
कभी सोज़-ओ-साज़-ए-'रूमी' कभी पेच-ओ-ताब-ए-'राज़ी'

वो फ़रेब-ख़ुर्दा शाहीं कि पला हो करगसों में
उसे क्या ख़बर कि क्या है रह-ओ-रस्म-ए-शाहबाज़ी

न ज़बाँ कोई ग़ज़ल की न ज़बाँ से बा-ख़बर मैं
कोई दिल-कुशा सदा हो अजमी हो या कि ताज़ी

नहीं फ़क़्र ओ सल्तनत में कोई इम्तियाज़ ऐसा
ये सिपह की तेग़-बाज़ी वो निगह की तेग़-बाज़ी

कोई कारवाँ से टूटा कोई बद-गुमाँ हरम से
कि अमीर-ए-कारवाँ में नहीं ख़ू-ए-दिल-नवाज़ी


ला फिर इक बार वही बादा ओ जाम ऐ साक़ी अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

ला फिर इक बार वही बादा ओ जाम ऐ साक़ी
हाथ आ जाए मुझे मेरा मक़ाम ऐ साक़ी

तीन सौ साल से हैं हिन्द के मय-ख़ाने बंद
अब मुनासिब है तिरा फ़ैज़ हो आम ऐ साक़ी

मेरी मीना-ए-ग़ज़ल में थी ज़रा सी बाक़ी
शेख़ कहता है कि है ये भी हराम ऐ साक़ी

शेर मर्दों से हुआ बेश-ए-तहक़ीक़ तही
रह गए सूफ़ी ओ मुल्ला के ग़ुलाम ऐ साक़ी

इश्क़ की तेग़-ए-जिगर-दार उड़ा ली किस ने
इल्म के हाथ में ख़ाली है नियाम ऐ साक़ी

सीना रौशन हो तो है सोज़-ए-सुख़न ऐन-ए-हयात
हो न रौशन तो सुख़न मर्ग-ए-दवाम ऐ साक़ी

तू मिरी रात को महताब से महरूम न रख
तिरे पैमाने में है माह-ए-तमाम ऐ साक़ी


ये पयाम दे गई है मुझे बाद-ए-सुब्ह-गाही अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

ये पयाम दे गई है मुझे बाद-ए-सुब्ह-गाही
कि ख़ुदी के आरिफ़ों का है मक़ाम पादशाही

तिरी ज़िंदगी इसी से तिरी आबरू इसी से
जो रही ख़ुदी तो शाही न रही तो रू-सियाही

न दिया निशान-ए-मंज़िल मुझे ऐ हकीम तू ने
मुझे क्या गिला हो तुझ से तू न रह-नशीं न राही

मिरे हल्क़ा-ए-सुख़न में अभी ज़ेर-ए-तर्बियत हैं
वो गदा कि जानते हैं रह-ओ-रस्म-ए-कज-कुलाही

ये मुआमले हैं नाज़ुक जो तिरी रज़ा हो तू कर
कि मुझे तो ख़ुश न आया ये तरिक़-ए-ख़ानक़ाही

तू हुमा का है शिकारी अभी इब्तिदा है तेरी
नहीं मस्लहत से ख़ाली ये जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही

तू अरब हो या अजम हो तिरा ला इलाह इल्ला
लुग़त-ए-ग़रीब जब तक तिरा दिल न दे गवाही

ये कौन ग़ज़ल-ख़्वाँ है पुर-सोज़ ओ नशात-अंगेज़ अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

ये कौन ग़ज़ल-ख़्वाँ है पुर-सोज़ ओ नशात-अंगेज़
अंदेशा-ए-दाना को करता है जुनूँ-आमेज़

गो फ़क़्र भी रखता है अंदाज़-ए-मुलूकाना
ना-पुख़्ता है परवेज़ी बे-सल्तनत-ए-परवेज़

अब हुजरा-ए-सूफ़ी में वो फ़क़्र नहीं बाक़ी
ख़ून-ए-दिल-ए-शेराँ हो जिस फ़क़्र की दस्तावेज़

ऐ हल्क़ा-ए-दरवेशाँ वो मर्द-ए-ख़ुदा कैसा
हो जिस के गरेबाँ में हंगामा-ए-रुस्ता-ख़ेज़

जो ज़िक्र की गरमी से शोले की तरह रौशन
जो फ़िक्र की सुरअत में बिजली से ज़ियादा तेज़

करती है मुलूकियात आसार-ए-जुनूँ पैदा
अल्लाह के निश्तर हैं तैमूर हो या चंगेज़

यूँ दाद-ए-सुख़न मुझ को देते हैं इराक़ ओ पारस
ये काफ़िर-ए-हिन्दी है बे-तेग़-ओ-सिनाँ ख़ूँ-रेज़

यूँ हाथ नहीं आता वो गौहर-ए-यक-दाना अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

यूँ हाथ नहीं आता वो गौहर-ए-यक-दाना 
यक-रंगी ओ आज़ादी ऐ हिम्मत-ए-मर्दाना 

या संजर ओ तुग़रल का आईन-ए-जहाँगीरी 
या मर्द-ए-क़लंदर के अंदाज़-ए-मुलूकाना 

या हैरत-ए-'फ़राबी' या ताब-ओ-तब-ए-'रूमी' 
या फ़िक्र-ए-हकीमाना या जज़्ब-ए-कलीमाना 

या अक़्ल की रूबाही या इश्क़-ए-यदुल-लाही 
या हीला-ए-अफ़रंगी या हमला-ए-तुरकाना 

या शर-ए-मुसलमानी या दैर की दरबानी 
या नारा-ए-मस्ताना काबा हो कि बुत-ख़ाना 

मीरी में फ़क़ीरी में शाही में ग़ुलामी में 
कुछ काम नहीं बनता बे-जुरअत-ए-रिंदाना 

मुसलमाँ के लहू में है सलीक़ा दिल-नवाज़ी का अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

मुसलमाँ के लहू में है सलीक़ा दिल-नवाज़ी का
मुरव्वत हुस्न-ए-आलम-गीर है मर्दान-ए-ग़ाज़ी का

शिकायत है मुझे या रब ख़ुदावंदान-ए-मकतब से
सबक़ शाहीं बच्चों को दे रहे हैं ख़ाक-बाज़ी का

बहुत मुद्दत के नख़चीरों का अंदाज़-ए-निगह बदला
कि मैं ने फ़ाश कर डाला तरीक़ा शाहबाज़ी का

क़लंदर जुज़ दो हर्फ़-ए-ला-इलाह कुछ भी नहीं रखता
फ़क़ीह-ए-शहर क़ारूँ है लुग़त-हा-ए-हिजाज़ी का

हदीस-ए-बादा-ओ-मीना-ओ-जाम आती नहीं मुझ को
न कर ख़ारा-शग़ाफ़ों से तक़ाज़ा शीशा-साज़ी का

कहाँ से तू ने ऐ 'इक़बाल' सीखी है ये दरवेशी
कि चर्चा पादशाहों में है तेरी बे-नियाज़ी का

मिरी नवा से हुए ज़िंदा आरिफ़ ओ आमी अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

मिरी नवा से हुए ज़िंदा आरिफ़ ओ आमी
दिया है मैं ने उन्हें ज़ौक़-ए-आतिश आशामी

हरम के पास कोई आजमी है ज़मज़मा-संज
कि तार तार हुए जामा हाए एहरामी

हक़ीक़त-ए-अबदी है मक़ाम-ए-शब्बीरी
बदलते रहते हैं अंदाज़-ए-कूफ़ी ओ शामी

मुझे ये डर है मुक़ामिर हैं पुख़्ता-कार बहुत
न रंग लाए कहीं तेरे हाथ की ख़ामी

अजब नहीं कि मुसलमाँ को फिर अता कर दें
शिकवा-ए-संजर ओ फ़क़्र-ए-जुनेद ओ बस्तामी

क़बा-ए-इल्म ओ हुनर लुत्फ़-ए-ख़ास है वर्ना
तिरी निगाह में थी मेरी ना-ख़ुश अंदामी

मिटा दिया मिरे साक़ी ने आलम-ए-मन-ओ-तू अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

मिटा दिया मिरे साक़ी ने आलम-ए-मन-ओ-तू
पिला के मुझ को मय-ए-ला-इलाहा-इल्ला-हू

न मय न शेर न साक़ी न शोर-ए-चंग-ओ-रबाब
सुकूत-ए-कोह ओ लब-ए-जू व लाला-ए-ख़ुद-रू

गदा-ए-मय-कदा की शान-ए-बे-नियाज़ी देख
पहुँच के चश्मा-ए-हैवाँ पे तोड़ता है सुबू

मिरा सबूचा ग़नीमत है इस ज़माने में
कि ख़ानक़ाह में ख़ाली हैं सूफ़ियों के कदू

मैं नौ-नियाज़ हूँ मुझ से हिजाब ही औला
कि दिल से बढ़ के है मेरी निगाह बे-क़ाबू

अगरचे बहर की मौजों में है मक़ाम इस का
सफ़ा-ए-पाकी-ए-तीनत से है गुहर का वज़ू

जमील-तर हैं गुल ओ लाला फ़ैज़ से इस के
निगाह-ए-शाइर-ए-रंगीं-नवा में है जादू


मकतबों में कहीं रानाई-ए-अफ़कार भी है अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

मकतबों में कहीं रानाई-ए-अफ़कार भी है 
ख़ानक़ाहों में कहीं लज़्ज़त-ए-असरार भी है 

मंज़िल-ए-रह-रवाँ दूर भी दुश्वार भी है 
कोई इस क़ाफ़िले में क़ाफ़िला-सालार भी है 

बढ़ के ख़ैबर से है ये मारका-ए-दीन-ओ-वतन 
इस ज़माने में कोई हैदर-ए-कर्रार भी है 

इल्म की हद से परे बंदा-ए-मोमिन के लिए 
लज़्ज़त-ए-शौक़ भी है नेमत-ए-दीदार भी है 

पीर-ए-मय-ख़ाना ये कहता है कि ऐवान-ए-फ़रंग 
सुस्त-बुनियाद भी है आईना-दीवार भी है 

 मजनूँ ने शहर छोड़ा तो सहरा भी छोड़ दे अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

मजनूँ ने शहर छोड़ा तो सहरा भी छोड़ दे
नज़्ज़ारे की हवस हो तो लैला भी छोड़ दे

वाइज़ कमाल-ए-तर्क से मिलती है याँ मुराद
दुनिया जो छोड़ दी है तो उक़्बा भी छोड़ दे

तक़लीद की रविश से तो बेहतर है ख़ुद-कुशी
रस्ता भी ढूँड ख़िज़्र का सौदा भी छोड़ दे

मानिंद-ए-ख़ामा तेरी ज़बाँ पर है हर्फ़-ए-ग़ैर
बेगाना शय पे नाज़िश-ए-बेजा भी छोड़ दे

लुत्फ़-ए-कलाम क्या जो न हो दिल में दर्द-ए-इश्क़
बिस्मिल नहीं है तू तो तड़पना भी छोड़ दे

शबनम की तरह फूलों पे रो और चमन से चल
इस बाग़ में क़याम का सौदा भी छोड़ दे

है आशिक़ी में रस्म अलग सब से बैठना
बुत-ख़ाना भी हरम भी कलीसा भी छोड़ दे

सौदा-गरी नहीं ये इबादत ख़ुदा की है
ऐ बे-ख़बर जज़ा की तमन्ना भी छोड़ दे

अच्छा है दिल के साथ रहे पासबान-ए-अक़्ल
लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे

जीना वो क्या जो हो नफ़स-ए-ग़ैर पर मदार
शोहरत की ज़िंदगी का भरोसा भी छोड़ दे

शोख़ी सी है सवाल-ए-मुकर्रर में ऐ कलीम
शर्त-ए-रज़ा ये है कि तक़ाज़ा भी छोड़ दे

वाइज़ सुबूत लाए जो मय के जवाज़ में
'इक़बाल' को ये ज़िद है कि पीना भी छोड़ दे


फ़ितरत ने न बख़्शा मुझे अंदेशा-ए-चालाक अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

फ़ितरत ने न बख़्शा मुझे अंदेशा-ए-चालाक
रखती है मगर ताक़त-ए-परवाज़ मिरी ख़ाक

वो ख़ाक कि है जिस का जुनूँ सयक़ल-ए-इदराक
वो ख़ाक कि जिबरील की है जिस से क़बा चाक

वो ख़ाक कि परवा-ए-नशेमन नहीं रखती
चुनती नहीं पहना-ए-चमन से ख़स ओ ख़ाशाक

इस ख़ाक को अल्लाह ने बख़्शे हैं वो आँसू
करती है चमक जिन की सितारों को अरक़-नाक

फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर 
तस्ख़ीर-ए-मक़ाम-ए-रंग-ओ-बू कर 

तू अपनी ख़ुदी को खो चुका है 
खोई हुई शय की जुस्तुजू कर 

तारों की फ़ज़ा है बे-कराना 
तू भी ये मक़ाम-ए-आरज़ू कर 

उर्यां हैं तिरे चमन की हूरें 
चाक-ए-गुल-ओ-लाला को रफ़ू कर 

बे-ज़ौक़ नहीं अगरचे फ़ितरत 
जो उस से न हो सका वो तू कर 


पूछ उस से कि मक़्बूल है फ़ितरत की गवाही अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

पूछ उस से कि मक़्बूल है फ़ितरत की गवाही
तू साहिब-ए-मंज़िल है कि भटका हुआ राही

काफ़िर है मुसलमाँ तो न शाही न फ़क़ीरी
मोमिन है तो करता है फ़क़ीरी में भी शाही

काफ़िर है तो शमशीर पे करता है भरोसा
मोमिन है तो बे-तेग़ भी लड़ता है सिपाही

काफ़िर है तो है ताबा-ए-तक़दीर मुसलमाँ
मोमिन है तो वो आप है तक़दीर-ए-इलाही

मैं ने तो किया पर्दा-ए-असरार को भी चाक
देरीना है तेरा मरज़-ए-कोर-निगाही


परेशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

परेशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए
जो मुश्किल अब है या रब फिर वही मुश्किल न बन जाए

न कर दें मुझ को मजबूर-ए-नवाँ फ़िरदौस में हूरें
मिरा सोज़-ए-दरूँ फिर गर्मी-ए-महफ़िल न बन जाए

कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को
खटक सी है जो सीने में ग़म-ए-मंज़िल न बन जाए

बनाया इश्क़ ने दरिया-ए-ना-पैदा-कराँ मुझ को
ये मेरी ख़ुद-निगह-दारी मिरा साहिल न बन जाए

कहीं इस आलम-ए-बे-रंग-ओ-बू में भी तलब मेरी
वही अफ़्साना-ए-दुंबाला-ए-महमिल न बन जाए

उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं
कि ये टूटा हुआ तारा मह-ए-कामिल न बन जाए

ने मोहरा बाक़ी ने मोहरा-बाज़ी अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

ने मोहरा बाक़ी ने मोहरा-बाज़ी 
जीता है 'रूमी' हारा है 'राज़ी' 

रौशन है जाम-ए-जमशेद अब तक 
शाही नहीं है ब-शीशा-बाज़ी 

दिल है मुसलमाँ मेरा न तेरा 
तू भी नमाज़ी मैं भी नमाज़ी 

मैं जानता हूँ अंजाम उस का 
जिस मारके में मुल्ला हों ग़ाज़ी 

तुर्की भी शीरीं ताज़ी भी शीरीं 
हर्फ़-ए-मोहब्बत तुर्की न ताज़ी 

आज़र का पेशा ख़ारा-तराशी 
कार-ए-ख़लीलाँ ख़ारा-गुदाज़ी 

तू ज़िंदगी है पाएँदगी है 
बाक़ी है जो कुछ सब ख़ाक-बाज़ी 

नाला है बुलबुल-ए-शोरीदा तिरा ख़ाम अभी अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

नाला है बुलबुल-ए-शोरीदा तिरा ख़ाम अभी
अपने सीने में इसे और ज़रा थाम अभी

पुख़्ता होती है अगर मस्लहत-अंदेश हो अक़्ल
इश्क़ हो मस्लहत-अंदेश तो है ख़ाम अभी

बे-ख़तर कूद पड़ा आतिश-ए-नमरूद में इश्क़
अक़्ल है महव-ए-तमाशा-ए-लब-ए-बाम अभी

इश्क़ फ़र्मूदा-ए-क़ासिद से सुबुक-गाम-ए-अमल
अक़्ल समझी ही नहीं म'अनी-ए-पैग़ाम अभी

शेवा-ए-इश्क़ है आज़ादी ओ दहर-आशेबी
तू है ज़ुन्नारी-ए-बुत-ख़ाना-ए-अय्याम अभी

उज़्र-ए-परहेज़ पे कहता है बिगड़ कर साक़ी
है तिरे दिल में वही काविश-ए-अंजाम अभी

सई-ए-पैहम है तराज़ू-कम-ओ-कैफ़-ए-हयात
तेरी मीज़ाँ है शुमार-ए-सहर-ओ-शाम अभी

अब्र-ए-नैसाँ ये तुनुक-बख़्शी-ए-शबनम कब तक
मेरे कोहसार के लाले हैं तही-जाम अभी

बादा-गर्दान-ए-अजम वो अरबी मेरी शराब
मिरे साग़र से झिजकते हैं मय-आशाम अभी

ख़बर 'इक़बाल' की लाई है गुलिस्ताँ से नसीम
नौ-गिरफ़्तार फड़कता है तह-ए-दाम अभी


न तू ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

न तू ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए
जहाँ है तेरे लिए तू नहीं जहाँ के लिए

ये अक़्ल ओ दिल हैं शरर शोला-ए-मोहब्बत के
वो ख़ार-ओ-ख़स के लिए है ये नीस्ताँ के लिए

मक़ाम-ए-परवरिश-ए-आह-ओ-लाला है ये चमन
न सैर-ए-गुल के लिए है न आशियाँ के लिए

रहेगा रावी ओ नील ओ फ़ुरात में कब तक
तिरा सफ़ीना कि है बहर-ए-बे-कराँ के लिए

निशान-ए-राह दिखाते थे जो सितारों को
तरस गए हैं किसी मर्द-ए-राह-दाँ के लिए

निगह बुलंद सुख़न दिल-नवाज़ जाँ पुर-सोज़
यही है रख़्त-ए-सफ़र मीर-ए-कारवाँ के लिए

ज़रा सी बात थी अंदेशा-ए-अजम ने उसे
बढ़ा दिया है फ़क़त ज़ेब-ए-दास्ताँ के लिए

मिरे गुलू में है इक नग़्मा जिब्राईल-आशोब
संभाल कर जिसे रक्खा है ला-मकाँ के लिए


न आते हमें इस में तकरार क्या थी अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

न आते हमें इस में तकरार क्या थी 
मगर व'अदा करते हुए आर क्या थी 

तुम्हारे पयामी ने सब राज़ खोला 
ख़ता इस में बंदे की सरकार क्या थी 

भरी बज़्म में अपने आशिक़ को ताड़ा 
तिरी आँख मस्ती में होश्यार क्या थी 

तअम्मुल तो था उन को आने में क़ासिद 
मगर ये बता तर्ज़-ए-इंकार क्या थी 

खिंचे ख़ुद-बख़ुद जानिब-ए-तूर मूसा 
कशिश तेरी ऐ शौक़-ए-दीदार क्या थी 

कहीं ज़िक्र रहता है 'इक़बाल' तेरा 
फ़ुसूँ था कोई तेरी गुफ़्तार क्या थी 


दिल सोज़ से ख़ाली है निगह पाक नहीं है अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

दिल सोज़ से ख़ाली है निगह पाक नहीं है
फिर इस में अजब क्या कि तू बेबाक नहीं है

है ज़ौक़-ए-तजल्ली भी इसी ख़ाक में पिन्हाँ
ग़ाफ़िल तू निरा साहिब-ए-इदराक नहीं है

वो आँख कि है सुर्मा-ए-अफ़रंग से रौशन
पुरकार ओ सुख़न-साज़ है नमनाक नहीं है

क्या सूफ़ी ओ मुल्ला को ख़बर मेरे जुनूँ की
उन का सर-ए-दामन भी अभी चाक नहीं है

कब तक रहे महकूमी-ए-अंजुम में मिरी ख़ाक
या मैं नहीं या गर्दिश-ए-अफ़्लाक नहीं है

बिजली हूँ नज़र कोह ओ बयाबाँ पे है मेरी
मेरे लिए शायाँ ख़स-ओ-ख़ाशाक नहीं है

आलम है फ़क़त मोमिन-ए-जाँबाज़ की मीरास
मोमिन नहीं जो साहिब-ए-लौलाक नहीं है

तुझे याद क्या नहीं है मिरे दिल का वो ज़माना अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

तुझे याद क्या नहीं है मिरे दिल का वो ज़माना
वो अदब-गह-ए-मोहब्बत वो निगह का ताज़ियाना

ये बुतान-ए-अस्र-ए-हाज़िर कि बने हैं मदरसे में
न अदा-ए-काफ़िराना न तराश-ए-आज़राना

नहीं इस खुली फ़ज़ा में कोई गोशा-ए-फ़राग़त
ये जहाँ अजब जहाँ है न क़फ़स न आशियाना

रग-ए-ताक मुंतज़िर है तिरी बारिश-ए-करम की
कि अजम के मय-कदों में न रही मय-ए-मुग़ाना

मिरे हम-सफ़ीर इसे भी असर-ए-बहार समझे
उन्हें क्या ख़बर कि क्या है ये नवा-ए-आशिक़ाना

मिरे ख़ाक ओ ख़ूँ से तू ने ये जहाँ किया है पैदा
सिला-ए-शहीद क्या है तब-ओ-ताब-ए-जावेदाना

तिरी बंदा-परवरी से मिरे दिन गुज़र रहे हैं
न गिला है दोस्तों का न शिकायत-ए-ज़माना

तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ अल्लामा इक़बाल  ग़ज़ल /Allama Iqbal Ghazal

तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ 
मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ 

सितम हो कि हो वादा-ए-बे-हिजाबी 
कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ 

ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को 
कि मैं आप का सामना चाहता हूँ 

ज़रा सा तो दिल हूँ मगर शोख़ इतना 
वही लन-तरानी सुना चाहता हूँ 

कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल 
चराग़-ए-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ 

भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी 
बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ 

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