अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

 अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

 अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal



अजीब रंग तिरे हुस्न का लगाव में था  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

अजीब रंग तिरे हुस्न का लगाव में था
गुलाब जैसे कड़ी धूप के अलाव में था

है जिस की याद मिरी फ़र्द-ए-जुर्म की सुर्ख़ी
उसी का अक्स मिरे एक एक घाव में था

यहाँ वहाँ से किनारे मुझे बुलाते रहे
मगर मैं वक़्त का दरिया था और बहाव में था

उरूस-ए-गुल को सबा जैसे गुदगुदा के चली
कुछ ऐसा प्यार का आलम तिरे सुभाव में था

मैं पुर-सुकूँ हूँ मगर मेरा दिल ही जानता है
जो इंतिशार मोहब्बत के रख-रखाव में था

ग़ज़ल के रूप में तहज़ीब गा रही थी 'नदीम'
मिरा कमाल मिरे फ़न के इस रचाव में था

अपने माहौल से थे क़ैस के रिश्ते क्या क्या  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal



अपने माहौल से थे क़ैस के रिश्ते क्या क्या
दश्त में आज भी उठते हैं बगूले क्या क्या

इश्क़ मे'आर-ए-वफ़ा को नहीं करता नीलाम
वर्ना इदराक ने दिखलाए थे रस्ते क्या क्या

ये अलग बात कि बरसे नहीं गरजे तो बहुत
वर्ना बादल मिरे सहराओं पे उमडे क्या क्या

आग भड़की तो दर-ओ-बाम हुए राख के ढेर
और देते रहे अहबाब दिलासे क्या क्या

लोग अशिया की तरह बिक गए अशिया के लिए
सर-ए-बाज़ार तमाशे नज़र आए क्या क्या

लफ़्ज़ किस शान से तख़्लीक़ हुआ था लेकिन
उस का मफ़्हूम बदलते रहे नुक़्ते क्या क्या

इक किरन तक भी न पहुँची मिरे बातिन में 'नदीम'
सर-ए-अफ़्लाक दमकते रहे तारे क्या क्या


अब तो शहरों से ख़बर आती है दीवानों की  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal


अब तो शहरों से ख़बर आती है दीवानों की
कोई पहचान ही बाक़ी नहीं वीरानों की

अपनी पोशाक से हुश्यार कि ख़ुद्दाम-ए-क़दीम
धज्जियाँ माँगते हैं अपने गरेबानों की

सनअतें फैलती जाती हैं मगर इस के साथ
सरहदें टूटती जाती हैं गुलिस्तानों की

दिल में वो ज़ख़्म खिले हैं कि चमन क्या शय है
घर में बारात सी उतरी हुई गुल-दानों की

उन को क्या फ़िक्र कि मैं पार लगा या डूबा
बहस करते रहे साहिल पे जो तूफ़ानों की

तेरी रहमत तो मुसल्लम है मगर ये तो बता
कौन बिजली को ख़बर देता है काशानों की

मक़बरे बनते हैं ज़िंदों के मकानों से बुलंद
किस क़दर औज पे तकरीम है इंसानों की

एक इक याद के हाथों पे चराग़ों भरे तश्त
काबा-ए-दिल की फ़ज़ा है कि सनम-ख़ानों की


इक मोहब्बत के एवज़ अर्ज़ ओ समा दे दूँगा  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

इक मोहब्बत के एवज़ अर्ज़ ओ समा दे दूँगा
तुझ से काफ़िर को तो मैं अपना ख़ुदा दे दूँगा

जुस्तुजू भी मिरा फ़न है मिरे बिछड़े हुए दोस्त
जो भी दर बंद मिला उस पे सदा दे दूँगा

इक पल भी तिरे पहलू में जो मिल जाए तो मैं
अपने अश्कों से उसे आब-ए-बक़ा दे दूँगा

रुख़ बदल दूँगा सबा का तिरे कूचे की तरफ़
और तूफ़ान को अपना ही पता दे दूँगा

जब भी आएँ मिरे हाथों में रुतों की बागें
बर्फ़ को धूप तो सहरा को घटा दे दूँगा

तू करम कर नहीं सकता तो सितम तोड़ के देख
मैं तिरे ज़ुल्म को भी हुस्न-ए-अदा दे दूँगा

ख़त्म गर हो न सकी उज़्र-तराशी तेरी
इक सदी तक तुझे जीने की दुआ दे दूँगा



उम्र भर उस ने इसी तरह लुभाया है मुझे  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

उम्र भर उस ने इसी तरह लुभाया है मुझे
वो जो इस दश्त के उस पार से लाया है मुझे

कितने आईनों में इक अक्स दिखाया है मुझे
ज़िंदगी ने जो अकेला कभी पाया है मुझे

तू मिरा कुफ़्र भी है तू मिरा ईमान भी है
तू ने लूटा है मुझे तू ने बसाया है मुझे

मैं तुझे याद भी करता हूँ तो जल उठता हूँ
तू ने किस दर्द के सहरा में गँवाया है मुझे

तू वो मोती कि समुंदर में भी शो'ला-ज़न था
मैं वो आँसू कि सर-ए-ख़ाक गिराया है मुझे

इतनी ख़ामोश है शब लोग डरे जाते हैं
और मैं सोचता हूँ किस ने बुलाया है मुझे

मेरी पहचान तो मुश्किल थी मगर यारों ने
ज़ख़्म अपने जो कुरेदे हैं तो पाया है मुझे

वाइज़-ए-शहर के नारों से तो क्या खुलती आँख
ख़ुद मिरे ख़्वाब की हैबत ने जगाया है मुझे

ऐ ख़ुदा अब तिरे फ़िरदौस पे मेरा हक़ है
तू ने इस दौर के दोज़ख़ में जलाया है मुझे



एहसास में फूल खिल रहे हैं  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

एहसास में फूल खिल रहे हैं 
पतझड़ के अजीब सिलसिले हैं 

कुछ इतनी शदीद तीरगी है 
आँखों में सितारे तैरते हैं 

देखें तो हवा जमी हुई है 
सोचें तो दरख़्त झूमते हैं 

सुक़रात ने ज़हर पी लिया था 
हम ने जीने के दुख सहे हैं 

हम तुझ से बिगड़ के जब भी उठे 
फिर तेरे हुज़ूर आ गए हैं 

हम अक्स हैं एक दूसरे का 
चेहरे ये नहीं हैं आइने हैं 

लम्हों का ग़ुबार छा रहा है 
यादों के चराग़ जल रहे हैं 

सूरज ने घने सनोबरों में 
जाले से शुआ'ओं के बुने हैं 

यकसाँ हैं फ़िराक़-ओ-वस्ल दोनों 
ये मरहले एक से कड़े हैं 

पा कर भी तो नींद उड़ गई थी 
खो कर भी तो रत-जगे मिले हैं 

जो दिन तिरी याद में कटे थे 
माज़ी के खंडर बने खड़े हैं 

जब तेरा जमाल ढूँडते थे 
अब तेरा ख़याल ढूँडते हैं 

हम दिल के गुदाज़ से हैं मजबूर 
जब ख़ुश भी हुए तो रोए हैं 

हम ज़िंदा हैं ऐ फ़िराक़ की रात 
प्यारी तिरे बाल क्यूँ खुले हैं 



क़लम दिल में डुबोया जा रहा है  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

क़लम दिल में डुबोया जा रहा है 
नया मंशूर लिक्खा जा रहा है 

मैं कश्ती में अकेला तो नहीं हूँ 
मिरे हमराह दरिया जा रहा है 

सलामी को झुके जाते हैं अश्जार 
हवा का एक झोंका जा रहा है 

मुसाफ़िर ही मुसाफ़िर हर तरफ़ हैं 
मगर हर शख़्स तन्हा जा रहा है 

मैं इक इंसाँ हूँ या सारा जहाँ हूँ 
बगूला है कि सहरा जा रहा है 

'नदीम' अब आमद आमद है सहर की 
सितारों को बुझाया जा रहा है 

कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समुंदर में उतर जाऊँगा

तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा
घर में घिर जाऊँगा सहरा में बिखर जाऊँगा

तेरे पहलू से जो उठ्ठूँगा तो मुश्किल ये है
सिर्फ़ इक शख़्स को पाऊँगा जिधर जाऊँगा

अब तिरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह
साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा

तेरा पैमान-ए-वफ़ा राह की दीवार बना
वर्ना सोचा था कि जब चाहूँगा मर जाऊँगा

चारासाज़ों से अलग है मिरा मेआ'र कि मैं
ज़ख़्म खाऊँगा तो कुछ और सँवर जाऊँगा

अब तो ख़ुर्शीद को गुज़रे हुए सदियाँ गुज़रीं
अब उसे ढूँडने मैं ता-ब-सहर जाऊँगा

ज़िंदगी शम्अ' की मानिंद जलाता हूँ 'नदीम'
बुझ तो जाऊँगा मगर सुब्ह तो कर जाऊँगा

खड़ा था कब से ज़मीं पीठ पर उठाए हुए  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

खड़ा था कब से ज़मीं पीठ पर उठाए हुए
आब आदमी है क़यामत से लौ लगाए हुए

ये दश्त से उमड आया है किस का सैल-ए-जुनूँ
कि हुस्न-ए-शहर खड़ा है नक़ाब उठाए हुए

ये भेद तेरे सिवा ऐ ख़ुदा किसे मालूम
अज़ाब टूट पड़े मुझ पे किस के लाए हुए

ये सैल-ए-आब न था ज़लज़ला था पानी का
बिखर बिखर गए क़र्ये मिरे बसाए हुए

अजब तज़ाद में काटा है ज़िंदगी का सफ़र
लबों पे प्यास थी बादल थे सर पे छाए हुए

सहर हुई तो कोई अपने घर में रुक न सका
किसी को याद न आए दिए जलाए हुए

ख़ुदा की शान कि मुनकिर हैं आदमियत के
ख़ुद अपनी सुकड़ी हुई ज़ात के सताए हुए

जो आस्तीन चढ़ाएँ भी मुस्कुराएँ भी
वो लोग हैं मिरे बरसों के आज़माए हुए

ये इंक़िलाब तो तामीर के मिज़ाज में है
गिराए जाते हैं ऐवाँ बने-बनाए हुए

ये और बात मिरे बस में थी न गूँज इस की
मुझे तो मुद्दतें गुज़रीं ये गीत गाए हुए

मिरी ही गोद में क्यूँ कट के गिर पड़े हैं 'नदीम'
अभी दुआ के लिए थे जो हाथ उठाए हुए


जाने कहाँ थे और चले थे कहाँ से हम  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

जाने कहाँ थे और चले थे कहाँ से हम
बेदार हो गए किसी ख़्वाब-ए-गिराँ से हम

ऐ नौ-बहार-ए-नाज़ तिरी निकहतों की ख़ैर
दामन झटक के निकले तिरे गुलसिताँ से हम

पिंदार-ए-आशिक़ी की अमानत है आह-ए-सर्द
ये तीर आज छोड़ रहे हैं कमाँ से हम

आओ ग़ुबार-ए-राह में ढूँडें शमीम-ए-नाज़
आओ ख़बर बहार की पूछें ख़िज़ाँ से हम

आख़िर दुआ करें भी तो किस मुद्दआ' के साथ
कैसे ज़मीं की बात कहें आसमाँ से हम


जब तिरा हुक्म मिला तर्क मोहब्बत कर दी  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

जब तिरा हुक्म मिला तर्क मोहब्बत कर दी
दिल मगर इस पे वो धड़का कि क़यामत कर दी

तुझ से किस तरह मैं इज़्हार-ए-तमन्ना करता
लफ़्ज़ सूझा तो मुआ'नी ने बग़ावत कर दी

मैं तो समझा था कि लौट आते हैं जाने वाले
तू ने जा कर तो जुदाई मिरी क़िस्मत कर दी

तुझ को पूजा है कि असनाम-परस्ती की है
मैं ने वहदत के मफ़ाहीम की कसरत कर दी

मुझ को दुश्मन के इरादों पे भी प्यार आता है
तिरी उल्फ़त ने मोहब्बत मिरी आदत कर दी

पूछ बैठा हूँ मैं तुझ से तिरे कूचे का पता
तेरे हालात ने कैसी तिरी सूरत कर दी

क्या तिरा जिस्म तिरे हुस्न की हिद्दत में जला
राख किस ने तिरी सोने की सी रंगत कर दी


जी चाहता है फ़लक पे जाऊँ  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

जी चाहता है फ़लक पे जाऊँ 
सूरज को ग़ुरूब से बचाऊँ 

बस मेरा चले जो गर्दिशों पर 
दिन को भी न चाँद को बुझाऊँ 

मैं छोड़ के सीधे रास्तों को 
भटकी हुई नेकियाँ कमाऊँ 

इम्कान पे इस क़दर यक़ीं है 
सहराओं में बीज डाल आऊँ 

मैं शब के मुसाफ़िरों की ख़ातिर 
मिश्अल न मिले तो घर जलाऊँ 

अशआर हैं मेरे इस्तिआरे 
आओ तुम्हें आइने दिखाऊँ 

यूँ बट के बिखर के रह गया हूँ 
हर शख़्स में अपना अक्स पाऊँ 

आवाज़ जो दूँ किसी के दर पर 
अंदर से भी ख़ुद निकल के आऊँ 

ऐ चारागरान-ए-अस्र-ए-हाज़िर 
फ़ौलाद का दिल कहाँ से लाऊँ 

हर रात दुआ करूँ सहर की 
हर सुब्ह नया फ़रेब खाऊँ 

हर जब्र पे सब्र कर रहा हूँ 
इस तरह कहीं उजड़ न जाऊँ 

रोना भी तो तर्ज़-ए-गुफ़्तुगू है 
आँखें जो रुकें तो लब हिलाऊँ 

ख़ुद को तो 'नदीम' आज़माया 
अब मर के ख़ुदा को आज़माऊँ 

तू जो बदला तो ज़माना भी बदल जाएगा  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

तू जो बदला तो ज़माना भी बदल जाएगा
घर जो सुलगा तो भरा शहर भी जल जाएगा

सामने आ कि मिरा इश्क़ है मंतिक़ में असीर
आग भड़की तो ये पत्थर भी पिघल जाएगा

दिल को मैं मुंतज़िर-ए-अब्र-ए-करम क्यूँ रक्खूँ
फूल है क़तरा-ए-शबनम से बहल जाएगा

मौसम-ए-गुल अगर इस हाल में आया भी तो क्या
ख़ून-ए-गुल चेहरा-ए-गुलज़ार पे मल जाएगा

वक़्त के पाँव की ज़ंजीर है रफ़्तार-ए-'नदीम'
हम जो ठहरे तो उफ़ुक़ दूर निकल जाएगा

फ़ासले के मअ'नी का क्यूँ फ़रेब खाते हो  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

फ़ासले के मअ'नी का क्यूँ फ़रेब खाते हो
जितने दूर जाते हो उतने पास आते हो

रात टूट पड़ती है जब सुकूत-ए-ज़िंदाँ पर
तुम मिरे ख़यालों में छुप के गुनगुनाते हो

मेरी ख़ल्वत-ए-ग़म के आहनी दरीचों पर
अपनी मुस्कुराहट की मिशअलें जलाते हो

जब तनी सलाख़ों से झाँकती है तन्हाई
दिल की तरह पहलू से लग के बैठ जाते हो

तुम मिरे इरादों के डोलते सितारों को
यास के ख़लाओं में रास्ता दिखाते हो

कितने याद आते हो पूछते हो क्यूँ मुझ से
जितना याद करते हो उतने याद आते हो


तेरी महफ़िल भी मुदावा नहीं तन्हाई का  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

तेरी महफ़िल भी मुदावा नहीं तन्हाई का
कितना चर्चा था तिरी अंजुमन-आराई का

दाग़-ए-दिल नक़्श है इक लाला-ए-सहराई का
ये असासा है मिरी बादिया-पैमाई का

जब भी देखा है तुझे आलम-ए-नौ देखा है
मरहला तय न हुआ तेरी शनासाई का

वो तिरे जिस्म की क़ौसें हों कि मेहराब-ए-हरम
हर हक़ीक़त में मिला ख़म तिरी अंगड़ाई का

उफ़ुक़-ए-ज़ेहन पे चमका तिरा पैमान-ए-विसाल
चाँद निकला है मिरे आलम-ए-तन्हाई का

भरी दुनिया में फ़क़त मुझ से निगाहें न चुरा
इश्क़ पर बस न चलेगा तिरी दानाई का

हर नई बज़्म तिरी याद का माहौल बनी
मैं ने ये रंग भी देखा तिरी यकताई का

नाला आता है जो लब पर तो ग़ज़ल बनता है
मेरे फ़न पर भी है परतव तिरी रानाई का


फिर भयानक तीरगी में आ गए  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

फिर भयानक तीरगी में आ गए 
हम गजर बजने से धोका खा गए 

हाए ख़्वाबों की ख़याबाँ-साज़ियाँ 
आँख क्या खोली चमन मुरझा गए 

कौन थे आख़िर जो मंज़िल के क़रीब 
आइने की चादरें फैला गए 

किस तजल्ली का दिया हम को फ़रेब 
किस धुँदलके में हमें पहुँचा गए 

उन का आना हश्र से कुछ कम न था 
और जब पलटे क़यामत ढा गए 

इक पहेली का हमें दे कर जवाब 
इक पहेली बन के हर सू छा गए 

फिर वही अख़्तर-शुमारी का निज़ाम 
हम तो इस तकरार से उकता गए 

रहनुमाओ रात अभी बाक़ी सही 
आज सय्यारे अगर टकरा गए 

क्या रसा निकली दुआ-ए-इज्तिहाद 
वो छुपाते ही रहे हम पा गए 

बस वही मेमार-ए-फ़र्दा हैं 'नदीम' 
जिन को मेरे वलवले रास आ गए 


फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ
आँखों को बुझा लूँ कि हक़ीक़त को बदल दूँ

हक़ बात कहूँगा मगर ऐ जुरअत-ए-इज़हार
जो बात न कहनी हो वही बात न कह दूँ

हर सोच पे ख़ंजर सा गुज़र जाता है दिल से
हैराँ हूँ कि सोचूँ तो किस अंदाज़ में सोचूँ

आँखें तो दिखाती हैं फ़क़त बर्फ़ से पैकर
जल जाती हैं पोरें जो किसी जिस्म को छू लूँ

चेहरे हैं कि मरमर से तराशी हुई लौहें
बाज़ार में या शहर-ए-ख़मोशाँ में खड़ा हूँ

सन्नाटे उड़ा देते हैं आवाज़ के पुर्ज़े
बारों को अगर दश्त-ए-मुसीबत में पुकारूँ

मिलती नहीं जब मौत भी माँगे से तो यारब
हो इज़्न तो मैं अपनी सलीब आप उठा लूँ


मरूँ तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊँ  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

मरूँ तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊँ
'नदीम' काश यही एक काम कर जाऊँ

ये दश्त-ए-तर्क-ए-मोहब्बत ये तेरे क़ुर्ब की प्यास
जो इज़्न हो तो तिरी याद से गुज़र जाऊँ

मिरा वजूद मिरी रूह को पुकारता है
तिरी तरफ़ भी चलूँ तो ठहर ठहर जाऊँ

तिरे जमाल का परतव है सब हसीनों पर
कहाँ कहाँ तुझे ढूँडूँ किधर किधर जाऊँ

मैं ज़िंदा था कि तिरा इंतिज़ार ख़त्म न हो
जो तू मिला है तो अब सोचता हूँ मर जाऊँ

तिरे सिवा कोई शाइस्ता-वफ़ा भी तो हो
मैं तेरे दर से जो उठूँ तो किस के घर जाऊँ

ये सोचता हूँ कि मैं बुत-परस्त क्यूँ न हुआ
तुझे क़रीब जो पाऊँ तो ख़ुद से डर जाऊँ

किसी चमन में बस इस ख़ौफ़ से गुज़र न हुआ
किसी कली पे न भूले से पाँव धर जाऊँ

ये जी में आती है तख़्लीक़-ए-फ़न के लम्हों में
कि ख़ून बन के रग-ए-संग में उतर जाऊँ


मैं किसी शख़्स से बेज़ार नहीं हो सकता  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

मैं किसी शख़्स से बेज़ार नहीं हो सकता
एक ज़र्रा भी तो बे-कार नहीं हो सकता

इस क़दर प्यार है इंसाँ की ख़ताओं से मुझे
कि फ़रिश्ता मिरा मेआर नहीं हो सकता

ऐ ख़ुदा फिर ये जहन्नम का तमाशा किया है
तेरा शहकार तो फ़िन्नार नहीं हो सकता

ऐ हक़ीक़त को फ़क़त ख़्वाब समझने वाले
तू कभी साहिब-ए-असरार नहीं हो सकता

तू कि इक मौजा-ए-निकहत से भी चौंक उठता है
हश्र आता है तो बेदार नहीं हो सकता

सर-ए-दीवार ये क्यूँ निर्ख़ की तकरार हुई
घर का आँगन कभी बाज़ार नहीं हो सकता

राख सी मज्लिस-ए-अक़्वाम की चुटकी में है क्या
कुछ भी हो ये मिरा पिंदार नहीं हो सकता

इस हक़ीक़त को समझने में लुटाया क्या कुछ
मेरा दुश्मन मिरा ग़म-ख़्वार नहीं हो सकता

मैं ने भेजा तुझे ऐवान-ए-हुकूमत में मगर
अब तो बरसों तिरा दीदार नहीं हो सकता

तीरगी चाहे सितारों की सिफ़ारिश लाए
रात से मुझ को सरोकार नहीं हो सकता

वो जो शेरों में है इक शय पस-ए-अल्फ़ाज़ 'नदीम'
उस का अल्फ़ाज़ में इज़हार नहीं हो सकता

मैं हूँ या तू है ख़ुद अपने से गुरेज़ाँ जैसे  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

मैं हूँ या तू है ख़ुद अपने से गुरेज़ाँ जैसे
मरे आगे कोई साया है ख़िरामाँ जैसे

तुझ से पहले तो बहारों का ये अंदाज़ न था
फूल यूँ खिलते हैं जलता हो गुलिस्ताँ जैसे

यूँ तिरी याद से होता है उजाला दिल में
चाँदनी में चमक उठता है बयाबाँ जैसे

दिल में रौशन हैं अभी तक तिरे वा'दों का चराग़
टूटती रात के तारे हों फ़रोज़ाँ जैसे

तुझे पाने की तमन्ना तुझे खोने का यक़ीं
तेरे गेसू मिरे माहौल में ग़लताँ जैसे

वक़्त बदला पे न बदला मिरा मे'आर-ए-वफ़ा
आँधियों में सर-ए-कोहसार चराग़ाँ जैसे

अश्क आँखों में चमकते हैं तबस्सुम बन कर
आ गया हाथ तिरा गोशा-ए-दामाँ जैसे

तुझ से मिल कर भी तमन्ना है कि तुझ से मिलता
प्यार के बा'द भी लब रहते हैं लर्ज़ां जैसे

भरी दुनिया में नज़र आता हूँ तन्हा तन्हा
मर्ग़-ज़ारों में कोई क़र्या-ए-वीराँ जैसे

ग़म-ए-जानाँ ग़म-ए-दौराँ की तरफ़ यूँ आया
जानिब शहर चले दुख़्तर-ए-दहक़ाँ जैसे

अस्र-ए-हाज़िर को सुनाता हूँ इस अंदाज़ में शे'र
मौसम-ए-गुल हो मज़ारों पे गुल-अफ़शाँ जैसे

ज़ख़्म भरता है ज़माना मगर इस तरह 'नदीम'
सी रहा हो कोई फूलों के गरेबाँ जैसे



लबों पे नर्म तबस्सुम रचा के धुल जाएँ  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

लबों पे नर्म तबस्सुम रचा के धुल जाएँ
ख़ुदा करे मिरे आँसू किसी के काम आएँ

जो इब्तिदा-ए-सफ़र में दिए बुझा बैठे
वो बद-नसीब किसी का सुराग़ क्या पाएँ

तलाश-ए-हुस्न कहाँ ले चली ख़ुदा जाने
उमंग थी कि फ़क़त ज़िंदगी को अपनाएँ

बुला रहे हैं उफ़ुक़ पर जो ज़र्द-रू टीले
कहो तो हम भी फ़सानों के राज़ हो जाएँ

न कर ख़ुदा के लिए बार बार ज़िक्र-ए-बहिश्त
हम आसमाँ का मुकर्रर फ़रेब क्यूँ खाएँ

तमाम मै-कदा सुनसान मय-गुसार उदास
लबों को खोल के कुछ सोचती हैं मीनाएँ


वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे
शजर से टूट के जो फ़स्ल-ए-गुल पे रोए थे

अभी अभी तुम्हें सोचा तो कुछ न याद आया
अभी अभी तो हम इक दूसरे से बिछड़े थे

तुम्हारे बा'द चमन पर जब इक नज़र डाली
कली कली में ख़िज़ाँ के चराग़ जलते थे

तमाम उम्र वफ़ा के गुनाहगार रहे
ये और बात कि हम आदमी तो अच्छे थे

शब-ए-ख़मोश को तन्हाई ने ज़बाँ दे दी
पहाड़ गूँजते थे दश्त सनसनाते थे

वो एक बार मिरे जिन को था हयात से प्यार
जो ज़िंदगी से गुरेज़ाँ थे रोज़ मरते थे

नए ख़याल अब आते हैं ढल के आहन में
हमारे दिल में कभी खेत लहलहाते थे

ये इर्तिक़ा का चलन है कि हर ज़माने में
पुराने लोग नए आदमी से डरते थे

'नदीम' जो भी मुलाक़ात थी अधूरी थी
कि एक चेहरे के पीछे हज़ार चेहरे थे


साँस लेना भी सज़ा लगता है  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

साँस लेना भी सज़ा लगता है 
अब तो मरना भी रवा लगता है 

कोह-ए-ग़म पर से जो देखूँ तो मुझे 
दश्त आग़ोश-ए-फ़ना लगता है 

सर-ए-बाज़ार है यारों की तलाश 
जो गुज़रता है ख़फ़ा लगता है 

मौसम-ए-गुल में सर-ए-शाख़-ए-गुलाब 
शोला भड़के तो बजा लगता है 

मुस्कुराता है जो इस आलम में 
ब-ख़ुदा मुझ को ख़ुदा लगता है 

इतना मानूस हूँ सन्नाटे से 
कोई बोले तो बुरा लगता है 

उन से मिल कर भी न काफ़ूर हुआ 
दर्द ये सब से जुदा लगता है 

नुत्क़ का साथ नहीं देता ज़ेहन 
शुक्र करता हूँ गिला लगता है 

इस क़दर तुंद है रफ़्तार-ए-हयात 
वक़्त भी रिश्ता-बपा लगता है 


शुऊर में कभी एहसास में बसाऊँ उसे   अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

शुऊर में कभी एहसास में बसाऊँ उसे
मगर मैं चार तरफ़ बे-हिजाब पाऊँ उसे

अगरचे फ़र्त-ए-हया से नज़र न आऊँ उसे
वो रूठ जाए तो सौ तरह से मनाऊँ उसे

तवील हिज्र का ये जब्र है कि सोचता हूँ
जो दिल में बस्ता है अब हाथ भी लगाऊँ उसे

उसे बुला के मिला उम्र भर का सन्नाटा
मगर ये शौक़ कि इक बार फिर बुलाऊँ उसे

अँधेरी रात में जब रास्ता नहीं मिलता
मैं सोचता हूँ कहाँ जा के ढूँड लाऊँ उसे

अभी तक उस का तसव्वुर तो मेरे बस में है
वो दोस्त है तो ख़ुदा किस लिए बनाऊँ उसे

'नदीम' तर्क-ए-मोहब्बत को एक उम्र हुई
मैं अब भी सोच रहा हूँ कि भूल जाऊँ उसे

सूरज को निकलना है सो निकलेगा दोबारा  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

सूरज को निकलना है सो निकलेगा दोबारा
अब देखिए कब डूबता है सुब्ह का तारा

मग़रिब में जो डूबे उसे मशरिक़ ही निकाले
मैं ख़ूब समझता हूँ मशिय्यत का इशारा

पढ़ता हूँ जब उस को तो सना करता हूँ रब की
इंसान का चेहरा है कि क़ुरआन का पारा

जी हार के तुम पार न कर पाओ नदी भी
वैसे तो समुंदर का भी होता है किनारा

जन्नत मिली झूटों को अगर झूट के बदले
सच्चों को सज़ा में है जहन्नम भी गवारा

ये कौन सा इंसाफ़ है ऐ अर्श-नशीनो
बिजली जो तुम्हारी है तो ख़िर्मन है हमारा

मुस्तक़बिल-ए-इंसान ने ऐलान किया है
आइंदा से बे-ताज रहेगा सर-ए-दारा


हम कभी इश्क़ को वहशत नहीं बनने देते  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

हम कभी इश्क़ को वहशत नहीं बनने देते
दिल की तहज़ीब को तोहमत नहीं बनने देते

लब ही लब है तो कभी और कभी चश्म ही चश्म
नक़्श तेरे तिरी सूरत नहीं बनने देते

ये सितारे जो चमकते हैं पस-ए-अब्र-ए-सियाह
तेरे ग़म को मिरी आदत नहीं बनने देते

उन की जन्नत भी कोई दश्त-ए-बला ही होगी
ज़िंदा रहने को जो लज़्ज़त नहीं बनने देते

दोस्त जो दर्द बटाते हैं वो नादानी में
दर-हक़ीक़त मिरी सीरत नहीं बनने देते

फ़िक्र फ़न के लिए लाज़िम मगर अच्छे शायर
अपने फ़न को कभी हिकमत नहीं बनने देते

वो मोहब्बत का तअल्लुक़ हो कि नफ़रत का 'नदीम'
राब्ते ज़ीस्त को ख़ल्वत नहीं बनने देते


हर लम्हा अगर गुरेज़-पा है  अहमद नदीम क़ासमी ग़ज़ल / Ahmed Nadeem Qasami Ghazal

हर लम्हा अगर गुरेज़-पा है 
तू क्यूँ मिरे दिल में बस गया है 

चिलमन में गुलाब सँभल रहा है 
ये तू है कि शोख़ी-ए-सबा है 

झुकती नज़रें बता रही हैं 
मेरे लिए तू भी सोचता है 

मैं तेरे कहे से चुप हूँ लेकिन 
चुप भी तू बयान-ए-मुद्दआ है 

हर देस की अपनी अपनी बोली 
सहरा का सुकूत भी सदा है 

इक उम्र के बअ'द मुस्कुरा कर 
तू ने तो मुझे रुला दिया है 

उस वक़्त का हिसाब क्या दूँ 
जो तेरे बग़ैर कट गया है 

माज़ी की सुनाऊँ क्या कहानी 
लम्हा लम्हा गुज़र गया है 

मत माँग दुआएँ जब मोहब्बत 
तेरा मेरा मुआमला है 

अब तुझ से जो रब्त है तो इतना 
तेरा ही ख़ुदा मिरा ख़ुदा है 

रोने को अब अश्क भी नहीं हैं 
या इश्क़ को सब्र आ गया है 

अब किस की तलाश में हैं झोंके 
मैं ने तो दिया बुझा दिया है 

कुछ खेल नहीं है इश्क़ करना 
ये ज़िंदगी भर का रत-जगा है 

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