अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
अपने पहलू से वो ग़ैरों को उठा ही न सके अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
अपनेपहलूसेवोग़ैरोंकोउठाहीनसके
उनकोहमक़िस्सा-ए-ग़मअपनासुनाहीनसके
ज़ेहनमेरावोक़यामतकिदो-आलमपेमुहीत
आपऐसेकिमिरेज़ेहनमेंआहीनसके
देखलेतेजोउन्हेंतोमुझेरखतेम'अज़ूर
शैख़-साहिबमगरउसबज़्ममेंजाहीनसके
अक़्लमहँगीहैबहुतइश्क़ख़िलाफ़-ए-तहज़ीब
दिलकोइसअहदमेंहमकाममेंलाहीनसके
हमतोख़ुदचाहतेथेचैनसेबैठेंकोईदम
आपकीयादमगरदिलसेभुलाहीनसके
इश्क़कामिलहैउसीकाकिपतंगोंकीतरह
ताबनज़्ज़ारा-ए-माशूक़कीलाहीनसके
दाम-ए-हस्तीकीभीतरकीबअजबरक्खीहै
जोफँसेउसमेंवोफिरजानबचाहीनसके
मज़हर-ए-जल्वा-ए-जानाँहैहरइकशय'अकबर'
बे-अदबआँखकिसीसम्तउठाहीनसके
ऐसीमंतिक़सेतोदीवानगीबेहतर'अकबर'
किजोख़ालिक़कीतरफ़दिलकोझुकाहीनसके
आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
आँखेंमुझेतलवोंसेवोमलनेनहींदेते
अरमानमिरेदिलकेनिकलनेनहींदेते
ख़ातिरसेतिरीयादकोटलनेनहींदेते
सचहैकिहमींदिलकोसँभलनेनहींदेते
किसनाज़सेकहतेहैंवोझुँझलाकेशब-ए-वस्ल
तुमतोहमेंकरवटभीबदलनेनहींदेते
परवानोंनेफ़ानूसकोदेखातोयेबोले
क्यूँहमकोजलातेहोकिजलनेनहींदेते
हैरानहूँकिसतरहकरूँअर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मनकोतोपहलूसेवोटलनेनहींदेते
दिलवोहैकिफ़रियादसेलबरेज़हैहरवक़्त
हमवोहैंकिकुछमुँहसेनिकलनेनहींदेते
गर्मी-ए-मोहब्बतमेंवोहैंआहसेमाने'
पंखानफ़स-ए-सर्दकाझलनेनहींदेते
आह जो दिल से निकाली जाएगी अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
आह जो दिल से निकाली जाएगी
क्या समझते हो कि ख़ाली जाएगी
इस नज़ाकत पर ये शमशीर-ए-जफ़ा
आप से क्यूँकर सँभाली जाएगी
क्या ग़म-ए-दुनिया का डर मुझ रिंद को
और इक बोतल चढ़ा ली जाएगी
शैख़ की दावत में मय का काम क्या
एहतियातन कुछ मँगा ली जाएगी
याद-ए-अबरू में है 'अकबर' महव यूँ
कब तिरी ये कज-ख़याली जाएगी
इक बोसा दीजिए मिरा ईमान लीजिए अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
इक बोसा दीजिए मिरा ईमान लीजिए
गो बुत हैं आप बहर-ए-ख़ुदा मान लीजिए
दिल ले के कहते हैं तिरी ख़ातिर से ले लिया
उल्टा मुझी पे रखते हैं एहसान लीजिए
ग़ैरों को अपने हाथ से हँस कर खिला दिया
मुझ से कबीदा हो के कहा पान लीजिए
मरना क़ुबूल है मगर उल्फ़त नहीं क़ुबूल
दिल तो न दूँगा आप को मैं जान लीजिए
हाज़िर हुआ करूँगा मैं अक्सर हुज़ूर में
आज अच्छी तरह से मुझे पहचान लीजिए
उम्मीद टूटी हुई है मेरी जो दिल मिरा था वो मर चुका है अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
उम्मीद टूटी हुई है मेरी जो दिल मिरा था वो मर चुका है
जो ज़िंदगानी को तल्ख़ कर दे वो वक़्त मुझ पर गुज़र चुका है
अगरचे सीने में साँस भी है नहीं तबीअत में जान बाक़ी
अजल को है देर इक नज़र की फ़लक तो काम अपना कर चुका है
ग़रीब-ख़ाने की ये उदासी ये ना-दुरुस्ती नहीं क़दीमी
चहल पहल भी कभी यहाँ थी कभी ये घर भी सँवर चुका है
ये सीना जिस में ये दाग़ में अब मसर्रतों का कभी था मख़्ज़न
वो दिल जो अरमान से भरा था ख़ुशी से उस में ठहर चुका है
ग़रीब अकबर के गर्द क्यूँ में ख़याल वाइज़ से कोई कह दे
उसे डराते हो मौत से क्या वो ज़िंदगी ही से डर चुका है
क्या जानिए सय्यद थे हक़ आगाह कहाँ तक अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
क्या जानिए सय्यद थे हक़ आगाह कहाँ तक
समझे न कि सीधी है मिरी राह कहाँ तक
मंतिक़ भी तो इक चीज़ है ऐ क़िबला ओ काबा
दे सकती है काम आप की वल्लाह कहाँ तक
अफ़्लाक तो इस अहद में साबित हुए मादूम
अब क्या कहूँ जाती है मिरी आह कहाँ तक
कुछ सनअत ओ हिरफ़त पे भी लाज़िम है तवज्जोह
आख़िर ये गवर्नमेंट से तनख़्वाह कहाँ तक
मरना भी ज़रूरी है ख़ुदा भी है कोई चीज़
ऐ हिर्स के बंदो हवस-ए-जाह कहाँ तक
तहसीन के लायक़ तिरा हर शेर है 'अकबर'
अहबाब करें बज़्म में अब वाह कहाँ तक
ख़ुशी क्या हो जो मेरी बात वो बुत मान जाता है अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
ख़ुशी क्या हो जो मेरी बात वो बुत मान जाता है
मज़ा तो बेहद आता है मगर ईमान जाता है
बनूँ कौंसिल में स्पीकर तो रुख़्सत क़िरअत-ए-मिस्री
करूँ क्या मेम्बरी जाती है या क़ुरआन जाता है
ज़वाल-ए-जाह ओ दौलत में बस इतनी बात अच्छी है
कि दुनिया में बख़ूबी आदमी पहचान जाता है
नई तहज़ीब में दिक़्क़त ज़ियादा तो नहीं होती
मज़ाहिब रहते हैं क़ाइम फ़क़त ईमान जाता है
थिएटर रात को और दिन को यारों की ये स्पीचें
दुहाई लाट साहब की मिरा ईमान जाता है
जहाँ दिल में ये आई कुछ कहूँ वो चल दिया उठ कर
ग़ज़ब है फ़ित्ना है ज़ालिम नज़र पहचान जाता है
चुनाँ बुरूँद सब्र अज़ दिल के क़िस्से याद आते हैं
तड़प जाता हूँ ये सुन कर कि अब ईमान जाता है
ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता
आँख उन से जो मिलती है तो क्या क्या नहीं होता
जल्वा न हो मअ'नी का तो सूरत का असर क्या
बुलबुल गुल-ए-तस्वीर का शैदा नहीं होता
अल्लाह बचाए मरज़-ए-इश्क़ से दिल को
सुनते हैं कि ये आरिज़ा अच्छा नहीं होता
तश्बीह तिरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से
होता है शगुफ़्ता मगर इतना नहीं होता
मैं नज़अ में हूँ आएँ तो एहसान है उन का
लेकिन ये समझ लें कि तमाशा नहीं होता
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता
चर्ख़ से कुछ उमीद थी ही नहीं अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
चर्ख़ से कुछ उमीद थी ही नहीं
आरज़ू मैं ने कोई की ही नहीं
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं
चाहता था बहुत सी बातों को
मगर अफ़्सोस अब वो जी ही नहीं
जुरअत-ए-अर्ज़-ए-हाल क्या होती
नज़र-ए-लुत्फ़ उस ने की ही नहीं
इस मुसीबत में दिल से क्या कहता
कोई ऐसी मिसाल थी ही नहीं
आप क्या जानें क़द्र-ए-या-अल्लाह
जब मुसीबत कोई पड़ी ही नहीं
शिर्क छोड़ा तो सब ने छोड़ दिया
मेरी कोई सोसाइटी ही नहीं
पूछा 'अकबर' है आदमी कैसा
हँस के बोले वो आदमी ही नहीं
जहाँ में हाल मिरा इस क़दर ज़बून हुआ अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
जहाँ में हाल मिरा इस क़दर ज़बून हुआ
कि मुझ को देख के बिस्मिल को भी सुकून हुआ
ग़रीब दिल ने बहुत आरज़ूएँ पैदा कीं
मगर नसीब का लिक्खा कि सब का ख़ून हुआ
वो अपने हुस्न से वाक़िफ़ मैं अपनी अक़्ल से सैर
उन्हों ने होश सँभाला मुझे जुनून हुआ
उम्मीद-ए-चश्म-ए-मुरव्वत कहाँ रही बाक़ी
ज़रिया बातों का जब सिर्फ़ टेलीफ़ोन हुआ
निगाह-ए-गर्म क्रिसमस में भी रही हम पर
हमारे हक़ में दिसम्बर भी माह-ए-जून हुआ
ज़िद है उन्हें पूरा मिरा अरमाँ न करेंगे अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
ज़िद है उन्हें पूरा मिरा अरमाँ न करेंगे
मुँह से जो नहीं निकली है अब हाँ न करेंगे
क्यूँ ज़ुल्फ़ का बोसा मुझे लेने नहीं देते
कहते हैं कि वल्लाह परेशाँ न करेंगे
है ज़ेहन में इक बात तुम्हारे मुतअल्लिक़
ख़ल्वत में जो पूछोगे तो पिन्हाँ न करेंगे
वाइज़ तो बनाते हैं मुसलमान को काफ़िर
अफ़्सोस ये काफ़िर को मुसलमाँ न करेंगे
क्यूँ शुक्र-गुज़ारी का मुझे शौक़ है इतना
सुनता हूँ वो मुझ पर कोई एहसाँ न करेंगे
दीवाना न समझे हमें वो समझे शराबी
अब चाक कभी जेब ओ गरेबाँ न करेंगे
वो जानते हैं ग़ैर मिरे घर में है मेहमाँ
आएँगे तो मुझ पर कोई एहसाँ न करेंगे
तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है
बला के पेच में आया हुआ है
न क्यूँकर बू-ए-ख़ूँ नामे से आए
उसी जल्लाद का लिक्खा हुआ है
चले दुनिया से जिस की याद में हम
ग़ज़ब है वो हमें भूला हुआ है
कहूँ क्या हाल अगली इशरतों का
वो था इक ख़्वाब जो भूला हुआ है
जफ़ा हो या वफ़ा हम सब में ख़ुश हैं
करें क्या अब तो दिल अटका हुआ है
हुई है इश्क़ ही से हुस्न की क़द्र
हमीं से आप का शोहरा हुआ है
बुतों पर रहती है माइल हमेशा
तबीअत को ख़ुदाया क्या हुआ है
परेशाँ रहते हो दिन रात 'अकबर'
ये किस की ज़ुल्फ़ का सौदा हुआ है
दर्द तो मौजूद है दिल में दवा हो या न हो अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
दर्द तो मौजूद है दिल में दवा हो या न हो
बंदगी हालत से ज़ाहिर है ख़ुदा हो या न हो
झूमती है शाख़-ए-गुल खिलते हैं ग़ुंचे दम-ब-दम
बा-असर गुलशन में तहरीक-ए-सबा हो या न हो
वज्द में लाते हैं मुझ को बुलबुलों के ज़मज़मे
आप के नज़दीक बा-मअ'नी सदा हो या न हो
कर दिया है ज़िंदगी ने बज़्म-ए-हस्ती में शरीक
उस का कुछ मक़्सूद कोई मुद्दआ हो या न हो
क्यूँ सिवल-सर्जन का आना रोकता है हम-नशीं
इस में है इक बात ऑनर की शिफ़ा हो या न हो
मौलवी साहिब न छोड़ेंगे ख़ुदा गो बख़्श दे
घेर ही लेंगे पुलिस वाले सज़ा हो या न हो
मिमबरी से आप पर तो वार्निश हो जाएगी
क़ौम की हालत में कुछ इस से जिला हो या न हो
मो'तरिज़ क्यूँ हो अगर समझे तुम्हें सय्याद दिल
ऐसे गेसू हूँ तो शुबह दाम का हो या न हो
दिल मिरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
दिल मिरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला
बुत के बंदे मिले अल्लाह का बंदा न मिला
बज़्म-ए-याराँ से फिरी बाद-ए-बहारी मायूस
एक सर भी उसे आमादा-ए-सौदा न मिला
गुल के ख़्वाहाँ तो नज़र आए बहुत इत्र-फ़रोश
तालिब-ए-ज़मज़मा-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला
वाह क्या राह दिखाई है हमें मुर्शिद ने
कर दिया काबे को गुम और कलीसा न मिला
रंग चेहरे का तो कॉलेज ने भी रक्खा क़ाइम
रंग-ए-बातिन में मगर बाप से बेटा न मिला
सय्यद उट्ठे जो गज़ट ले के तो लाखों लाए
शैख़ क़ुरआन दिखाते फिरे पैसा न मिला
होशयारों में तो इक इक से सिवा हैं 'अकबर'
मुझ को दीवानों में लेकिन कोई तुझ सा न मिला
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ अकबर इलाहाबादी ग़ज़ल / Akbar Allahabadi Ghazal
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ
ज़िंदा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर-चंद कि हूँ होश में हुश्यार नहीं हूँ
इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊँगा बे-लौस
साया हूँ फ़क़त नक़्श-ब-दीवार नहीं हूँ
अफ़्सुर्दा हूँ इबरत से दवा की नहीं हाजत
ग़म का मुझे ये ज़ोफ़ है बीमार नहीं हूँ
वो गुल हूँ ख़िज़ाँ ने जिसे बर्बाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ
या रब मुझे महफ़ूज़ रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूँ
गो दावा-ए-तक़्वा नहीं दरगाह-ए-ख़ुदा में
बुत जिस से हों ख़ुश ऐसा गुनहगार नहीं हूँ
अफ़्सुर्दगी ओ ज़ोफ़ की कुछ हद नहीं 'अकबर'
काफ़िर के मुक़ाबिल में भी दीं-दार नहीं हूँ
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