अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
Table of Contents
- अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
- वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
- वो कहते हैं रंजिश की बातें भुला दें अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
- यूँ तो किस फूल से रंगत न गई बू न गई अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
- मोहब्बत की दुनिया में मशहूर कर दूँ अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
- मिरी आँखों से ज़ाहिर ख़ूँ-फ़िशानी अब भी होती है अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
- तमन्नाओं को ज़िंदा आरज़ूओं को जवाँ कर लूँ अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
- झूम कर बदली उठी और छा गई अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
- कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
- किस को देखा है ये हुआ क्या है अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
- किस की आँखों का लिए दिल पे असर जाते हैं अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
- काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएँ तो क्या करें अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
- ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
- उन रस भरी आँखों में हया खेल रही है अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
- आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
- उम्र भर की तल्ख़ बेदारी का सामाँ हो गईं अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए
रात दिन सूरत को देखा कीजिए
चाँदनी रातों में इक इक फूल को
बे-ख़ुदी कहती है सज्दा कीजिए
जो तमन्ना बर न आए उम्र भर
उम्र भर उस की तमन्ना कीजिए
इश्क़ की रंगीनियों में डूब कर
चाँदनी रातों में रोया कीजिए
पूछ बैठे हैं हमारा हाल वो
बे-ख़ुदी तू ही बता क्या कीजिए
हम ही उस के इश्क़ के क़ाबिल न थे
क्यूँ किसी ज़ालिम का शिकवा कीजिए
आप ही ने दर्द-ए-दिल बख़्शा हमें
आप ही इस का मुदावा कीजिए
कहते हैं 'अख़्तर' वो सुन कर मेरे शेर
इस तरह हम को न रुस्वा कीजिए
वो कहते हैं रंजिश की बातें भुला दें अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
वो कहते हैं रंजिश की बातें भुला दें
मोहब्बत करें ख़ुश रहें मुस्कुरा दें
ग़ुरूर और हमारा ग़ुरूर-ए-मोहब्बत
मह ओ मेहर को उन के दर पर झुका दें
जवानी हो गर जावेदानी तो या रब
तिरी सादा दुनिया को जन्नत बना दें
शब-ए-वस्ल की बे-ख़ुदी छा रही है
कहो तो सितारों की शमएँ बुझा दें
बहारें सिमट आएँ खिल जाएँ कलियाँ
जो हम तुम चमन में कभी मुस्कुरा दें
इबादत है इक बे-ख़ुदी से इबारत
हरम को मय-ए-मुश्क-बू से बसा दें
वो आएँगे आज ऐ बहार-ए-मोहब्बत
सितारों के बिस्तर पे कलियाँ बिछा दें
बनाता है मुँह तल्ख़ी-ए-मय से ज़ाहिद
तुझे बाग़-ए-रिज़वाँ से कौसर मँगा दें
जिन्हें उम्र भर याद आना सिखाया
वो दिल से तिरी याद क्यूँकर भुला दें
तुम अफ़्साना-ए-क़ैस क्या पूछते हो
इधर आओ हम तुम को लैला बना दें
ये बे-दर्दियाँ कब तक ऐ दर्द-ए-ग़ुर्बत
बुतों को फिर अर्ज़-ए-हरम में बसा दें
वो सरमस्तियाँ बख़्श ऐ रश्क-ए-शीरीं
कि ख़ुसरू को ख़्वाब-ए-अदम से जगा दें
तिरे वस्ल की बे-ख़ुदी कह रही है
ख़ुदाई तो क्या हम ख़ुदा को भुला दें
उन्हें अपनी सूरत पे यूँ नाज़ कब था
मिरे इश्क़-ए-रुस्वा को 'अख़्तर' दुआ दें
यूँ तो किस फूल से रंगत न गई बू न गई अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
यूँ तो किस फूल से रंगत न गई बू न गई
ऐ मोहब्बत मिरे पहलू से मगर तू न गई
मिट चले मेरी उमीदों की तरह हर्फ़ मगर
आज तक तेरे ख़तों से तिरी ख़ुशबू न गई
कब बहारों पे तिरे रंग का साया न पड़ा
कब तिरे गेसुओं को बाद-ए-सहर छू न गई
तिरे गेसू-ए-मोअम्बर को कभी छेड़ा था
मेरे हाथों से अभी तक तिरी ख़ुशबू न गई
मोहब्बत की दुनिया में मशहूर कर दूँ अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
मोहब्बत की दुनिया में मशहूर कर दूँ
मिरी सादा-दिल तुझ को मग़रूर कर दूँ
तिरे दिल को मिलने की ख़ुद आरज़ू हो
तुझे इस क़दर ग़म से रंजूर कर दूँ
मुझे ज़िंदगी दूर रखती है तुझ से
जो तू पास हो तो उसे दूर कर दूँ
मोहब्बत के इक़रार से शर्म कब तक
कभी सामना हो तो मजबूर कर दूँ
मिरे दिल में है शोला-ए-हुस्न रक़्साँ
मैं चाहूँ तो हर ज़र्रे को तूर कर दूँ
ये बे-रंगियाँ कब तक ऐ हुस्न-ए-रंगीं
इधर आ तुझे इश्क़ में चूर कर दूँ
तू गर सामने हो तो मैं बे-ख़ुदी में
सितारों को सज्दे पे मजबूर कर दूँ
सियह-ख़ाना-ए-ग़म है साक़ी ज़माना
बस इक जाम और नूर ही नूर कर दूँ
नहीं ज़िंदगी को वफ़ा वर्ना 'अख़्तर'
मोहब्बत से दुनिया को मामूर कर दूँ
मिरी आँखों से ज़ाहिर ख़ूँ-फ़िशानी अब भी होती है अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
मिरी आँखों से ज़ाहिर ख़ूँ-फ़िशानी अब भी होती है
निगाहों से बयाँ दिल की कहानी अब भी होती है
सुरूर-आरा शराब-ए-अर्ग़वानी अब भी होती है
मिरे क़दमों में दुनिया की जवानी अब भी होती है
कोई झोंका तो लाती ऐ नसीम अतराफ़-ए-कनआँ तक
सवाद-ए-मिस्र में अम्बर-फ़िशानी अब भी होती है
वो शब को मुश्क-बू पर्दों में छुप कर आ ही जाते हैं
मिरे ख़्वाबों पर उन की मेहरबानी अब भी होती है
कहीं से हाथ आ जाए तो हम को भी कोई ला दे
सुना है इस जहाँ में शादमानी अब भी होती है
हिलाल ओ बद्र के नक़्शे सबक़ देते हैं इंसाँ को
कि नाकामी बिना-ए-कामरानी अब भी होती है
कहीं अग़्यार के ख़्वाबों में छुप छुप कर न जाते हों
वो पहलू में हैं लेकिन बद-गुमानी अब भी होती है
समझता है शिकस्त-ए-तौबा अश्क-ए-तौबा को ज़ाहिद
मिरी आँखों की रंगत अर्ग़वानी अब भी होती है
वो बरसातें वो बातें वो मुलाक़ातें कहाँ हमदम
वतन की रात होने को सुहानी अब भी होती है
ख़फ़ा हैं फिर भी आ कर छेड़ जाते हैं तसव्वुर में
हमारे हाल पर कुछ मेहरबानी अब भी होती है
ज़बाँ ही में न हो तासीर तो मैं क्या करूँ नासेह
तिरी बातों से पैदा सरगिरानी अब भी होती है
तुम्हारे गेसुओं की छाँव में इक रात गुज़री थी
सितारों की ज़बाँ पर ये कहानी अब भी होती है
पस-ए-तौबा भी पी लेते हैं जाम-ए-ग़ुंचा-ओ-गुल से
बहारों में जुनूँ की मेहमानी अब भी होती है
कोई ख़ुश हो मिरी मायूसियाँ फ़रियाद करती हैं
इलाही क्या जहाँ में शादमानी अब भी होती है
बुतों को कर दिया था जिस ने मजबूर-ए-सुख़न 'अख़्तर'
लबों पर वो नवा-ए-आसमानी अब भी होती है
तमन्नाओं को ज़िंदा आरज़ूओं को जवाँ कर लूँ अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
तमन्नाओं को ज़िंदा आरज़ूओं को जवाँ कर लूँ
ये शर्मीली नज़र कह दे तो कुछ गुस्ताख़ियाँ कर लूँ
बहार आई है बुलबुल दर्द-ए-दिल कहती है फूलों से
कहो तो मैं भी अपना दर्द-ए-दिल तुम से बयाँ कर लूँ
हज़ारों शोख़ अरमाँ ले रहे हैं चुटकियाँ दिल में
हया उन की इजाज़त दे तो कुछ बेबाकियाँ कर लूँ
कोई सूरत तो हो दुनिया-ए-फ़ानी में बहलने की
ठहर जा ऐ जवानी मातम-ए-उम्र-ए-रवाँ कर लूँ
चमन में हैं बहम परवाना ओ शम्अ ओ गुल ओ बुलबुल
इजाज़त हो तो मैं भी हाल-ए-दिल अपना बयाँ कर लूँ
किसे मालूम कब किस वक़्त किस पर गिर पड़े बिजली
अभी से मैं चमन में चल कर आबाद आशियाँ कर लूँ
बर आएँ हसरतें क्या क्या अगर मौत इतनी फ़ुर्सत दे
कि इक बार और ज़िंदा शेवा-ए-इश्क़-ए-जवाँ कर लूँ
मुझे दोनों जहाँ में एक वो मिल जाएँ गर 'अख़्तर'
तो अपनी हसरतों को बे-नियाज़-ए-दो-जहाँ कर लूँ
झूम कर बदली उठी और छा गई अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
झूम कर बदली उठी और छा गई
सारी दुनिया पर जवानी आ गई
आह वो उस की निगाह-ए-मय-फ़रोश
जब भी उट्ठी मस्तियाँ बरसा गई
गेसू-ए-मुश्कीं में वो रू-ए-हसीं
अब्र में बिजली सी इक लहरा गई
आलम-ए-मस्ती की तौबा अल-अमाँ
पारसाई नश्शा बन कर छा गई
आह उस की बे-नियाज़ी की नज़र
आरज़ू क्या फूल सी कुम्हला गई
साज़-ए-दिल को गुदगुदाया इश्क़ ने
मौत को ले कर जवानी आ गई
पारसाई की जवाँ-मर्गी न पूछ
तौबा करनी थी कि बदली छा गई
'अख़्तर' उस जान-ए-तमन्ना की अदा
जब कभी याद आ गई तड़पा गई
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता
तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता
तर्क-ए-दुनिया का ये दावा है फ़ुज़ूल ऐ ज़ाहिद
बार-ए-हस्ती तो ज़रा सर से उतारा होता
वो अगर आ न सके मौत ही आई होती
हिज्र में कोई तो ग़म-ख़्वार हमारा होता
ज़िंदगी कितनी मसर्रत से गुज़रती या रब
ऐश की तरह अगर ग़म भी गवारा होता
अज़्मत-ए-गिर्या को कोताह-नज़र क्या समझें
अश्क अगर अश्क न होता तो सितारा होता
लब-ए-ज़ाहिद पे है अफ़्साना-ए-हूर-ए-जन्नत
काश इस वक़्त मिरा अंजुमन-आरा होता
ग़म-ए-उल्फ़त जो न मिलता ग़म-ए-हस्ती मिलता
किसी सूरत तो ज़माने में गुज़ारा होता
किस को फ़ुर्सत थी ज़माने के सितम सहने की
गर न उस शोख़ की आँखों का इशारा होता
कोई हमदर्द ज़माने में न पाया 'अख़्तर'
दिल को हसरत ही रही कोई हमारा होता
किस को देखा है ये हुआ क्या है अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
किस को देखा है ये हुआ क्या है
दिल धड़कता है माजरा क्या है
इक मोहब्बत थी मिट चुकी या रब
तेरी दुनिया में अब धरा क्या है
दिल में लेता है चुटकियाँ कोई
हाए इस दर्द की दवा क्या है
हूरें नेकों में बट चुकी होंगी
बाग़-ए-रिज़वाँ में अब रखा क्या है
उस के अहद-ए-शबाब में जीना
जीने वालो तुम्हें हुआ क्या है
अब दवा कैसी है दुआ का वक़्त
तेरे बीमार में रहा क्या है
याद आता है लखनऊ 'अख़्तर'
ख़ुल्द हो आएँ तो बुरा क्या है
किस की आँखों का लिए दिल पे असर जाते हैं अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
किस की आँखों का लिए दिल पे असर जाते हैं
मय-कदे हाथ बढ़ाते हैं जिधर जाते हैं
दिल में अरमान-ए-विसाल आँख में तूफ़ान-ए-जमाल
होश बाक़ी नहीं जाने का मगर जाते हैं
भूलती ही नहीं दिल को तिरी मस्ताना निगाह
साथ जाता है ये मय-ख़ाना जिधर जाते हैं
पासबानान-ए-हया क्या हुए ऐ दौलत-ए-हुस्न
हम चुरा कर तिरी दुज़-दीदा नज़र जाते हैं
पुर्सिश-ए-दिल तो कुजा ये भी न पूछा उस ने
हम मुसाफ़िर किधर आए थे किधर जाते हैं
चश्म-ए-हैराँ में समाए हैं ये किस के जल्वे
तूर हर गाम पे रक़्साँ हैं जिधर जाते हैं
जिस तरह भूले मुसाफ़िर कोई सामाँ अपना
हम यहाँ भूल के दिल और नज़र जाते हैं
कितने बेदर्द हैं इस शहर के रहने वाले
राह में छीन के दिल कहते हैं घर जाते हैं
अगले वक़्तों में लुटा करते थे रह-रौ अक्सर
हम तो इस अहद में भी लुट के मगर जाते हैं
फ़ैज़ाबाद से पहुँचा हमें ये फ़ैज़ 'अख़्तर'
कि जिगर पर लिए हम दाग़-ए-जिगर जाते हैं
काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएँ तो क्या करें अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएँ तो क्या करें
उस बेवफ़ा को भूल न जाएँ तो क्या करें
मुझ को ये ए'तिराफ़ दुआओं में है असर
जाएँ न अर्श पर जो दुआएँ तो क्या करें
इक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम
नाज़िल हों दिल पे रोज़ बलाएँ तो क्या करें
ज़ुल्मत-ब-दोश है मिरी दुनिया-ए-आशिक़ी
तारों की मिशअले न चुराएँ तो क्या करें
शब भर तो उन की याद में तारे गिना किए
तारे से दिन को भी नज़र आएँ तो क्या करें
अहद-ए-तरब की याद में रोया किए बहुत
अब मुस्कुरा के भूल न जाएँ तो क्या करें
अब जी में है कि उन को भुला कर ही देख लें
वो बार बार याद जो आएँ तो क्या करें
वअ'दे के ए'तिबार में तस्कीन-ए-दिल तो है
अब फिर वही फ़रेब न खाएँ तो क्या करें
तर्क-ए-वफ़ा भी जुर्म-ए-मोहब्बत सही मगर
मिलने लगें वफ़ा की सज़ाएँ तो क्या करें
ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए
वो उम्र क्या हुई वो ज़माने किधर गए
वीराँ हैं सहन ओ बाग़ बहारों को क्या हुआ
वो बुलबुलें कहाँ वो तराने किधर गए
है नज्द में सुकूत हवाओं को क्या हुआ
लैलाएँ हैं ख़मोश दिवाने किधर गए
उजड़े पड़े हैं दश्त ग़ज़ालों पे क्या बनी
सूने हैं कोहसार दिवाने किधर गए
वो हिज्र में विसाल की उम्मीद क्या हुई
वो रंज में ख़ुशी के बहाने किधर गए
दिन रात मय-कदे में गुज़रती थी ज़िंदगी
'अख़्तर' वो बे-ख़ुदी के ज़माने किधर गए
उन रस भरी आँखों में हया खेल रही है अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
उन रस भरी आँखों में हया खेल रही है
दो ज़हर के प्यालों पे क़ज़ा खेल रही है
हैं नर्गिस-ओ-गुल किस लिए मसहूर-ए-तमाशा
गुलशन में कोई शोख़ अदा खेल रही है
उस बज़्म में जाएँ तो ये कहती हैं अदाएँ
क्यूँ आए हो, क्या सर पे क़ज़ा खेल रही है
उस चश्म-ए-सियह मस्त पे गेसू हैं परेशाँ
मयख़ाने पे घनघोर घटा खेल रही है
बद-मस्ती में तुम ने उन्हें क्या कह दिया 'अख़्तर'
क्यूँ शोख़-निगाहों में हया खेल रही है
आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या
क्या बताऊँ कि मिरे दिल में हैं अरमाँ क्या क्या
ग़म अज़ीज़ों का हसीनों की जुदाई देखी
देखें दिखलाए अभी गर्दिश-ए-दौराँ क्या क्या
उन की ख़ुशबू है फ़ज़ाओं में परेशाँ हर सू
नाज़ करती है हवा-ए-चमनिस्ताँ क्या क्या
दश्त-ए-ग़ुर्बत में रुलाते हैं हमें याद आ कर
ऐ वतन तेरे गुल ओ सुम्बुल ओ रैहाँ क्या क्या
अब वो बातें न वो रातें न मुलाक़ातें हैं
महफ़िलें ख़्वाब की सूरत हुईं वीराँ क्या क्या
है बहार-ए-गुल-ओ-लाला मिरे अश्कों की नुमूद
मेरी आँखों ने खिलाए हैं गुलिस्ताँ क्या क्या
है करम उन के सितम का कि करम भी है सितम
शिकवे सुन सुन के वो होते हैं पशीमाँ क्या क्या
गेसू बिखरे हैं मिरे दोश पे कैसे कैसे
मेरी आँखों में हैं आबाद शबिस्ताँ क्या क्या
वक़्त-ए-इमदाद है ऐ हिम्मत-ए-गुस्ताख़ी-ए-शौक़
शौक़-अंगेज़ हैं उन के लब-ए-ख़ंदाँ क्या क्या
सैर-ए-गुल भी है हमें बाइस-ए-वहशत 'अख़्तर'
उन की उल्फ़त में हुए चाक गरेबाँ क्या क्या
उम्र भर की तल्ख़ बेदारी का सामाँ हो गईं अख़्तर शीरानी ग़ज़ल / Akhtar Shirani Ghazal
उम्र भर की तल्ख़ बेदारी का सामाँ हो गईं
हाए वो रातें कि जो ख़्वाब-ए-परेशाँ हो गईं
मैं फ़िदा उस चाँद से चेहरे पे जिस के नूर से
मेरे ख़्वाबों की फ़ज़ाएँ यूसुफ़िस्ताँ हो गईं
उम्र भर कम-बख़्त को फिर नींद आ सकती नहीं
जिस की आँखों पर तिरी ज़ुल्फ़ें परेशाँ हो गईं
दिल के पर्दों में थीं जो जो हसरतें पर्दा-नशीं
आज वो आँखों में आँसू बन के उर्यां हो गईं
कुछ तुझे भी है ख़बर ओ सोने वाले नाज़ से
मेरी रातें लुट गईं नींदें परेशाँ हो गईं
हाए वो मायूसियों में मेरी उम्मीदों का रंग
जो सितारों की तरह उठ उठ के पिन्हाँ हो गईं
बस करो ओ मेरी रोने वाली आँखों बस करो
अब तो अपने ज़ुल्म पर वो भी पशीमाँ हो गईं
आह वो दिन जो न आए फिर गुज़र जाने के बाद
हाए वो रातें कि जो ख़्वाब-ए-परेशाँ हो गईं
गुलशन-ए-दिल में कहाँ 'अख़्तर' वो रंग-ए-नौ-बहार
आरज़ूएँ चंद कलियाँ थीं परेशाँ हो गईं
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