अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal

अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal


अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal










अक़ीदे बुझ रहे हैं शम-ए-जाँ ग़ुल होती जाती है  
अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal

     
   अक़ीदे बुझ रहे हैं शम-ए-जाँ ग़ुल होती जाती है
मगर ज़ौक़-ए-जुनूँ की शोला-सामानी नहीं जाती

ख़ुदा मालूम किस किस के लहू की लाला-कारी है
ज़मीन-ए-कू-ए-जानाँ आज पहचानी नहीं जाती

अगर यूँ है तो क्यूँ है यूँ नहीं तो क्यूँ नहीं आख़िर
यक़ीं मोहकम है लेकिन ज़िद की हैरानी नहीं जाती

लहू जितना था सारा सर्फ़-ए-मक़्तल हो गया लेकिन
शहीदान-ए-वफ़ा के रुख़ की ताबानी नहीं जाती

परेशाँ-रोज़गार आशुफ़्ता-हालाँ का मुक़द्दर है
कि उस ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की परेशानी नहीं जाती

हर इक शय और महँगी और महँगी होती जाती है
बस इक ख़ून-ए-बशर है जिस की अर्ज़ानी नहीं जाती

ये नग़्मा नग़्मा-ए-बेदारी-ए-जम्हूर-ए-आलम है
वो शमशीर-ए-नवा जिस की दरख़शानी नहीं जाती

नए ख़्वाबों के दिल में शोला-ए-ख़ुर्शीद-ए-महशर है
ज़मीर-ए-हज़रत-ए-इंसाँ की सुल्तानी नहीं जाती

लगाते हैं लबों पर मोहर अर्बाब-ए-ज़बाँ-बंदी
अली-'सरदार' की शान-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी नहीं जाती



अभी और तेज़ कर ले सर-ए-ख़ंजर-ए-अदा को अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal

अभी और तेज़ कर ले सर-ए-ख़ंजर-ए-अदा को
मिरे ख़ूँ की है ज़रूरत तिरी शोख़ी-ए-हिना को

तुझे किस नज़र से देखे ये निगाह-ए-दर्द-आगीं
जो दुआएँ दे रही है तिरी चश्म-ए-बेवफ़ा को

कहीं रह गई हो शायद तिरे दिल की धड़कनों में
कभी सुन सके तो सुन ले मिरी ख़ूँ-शुदा नवा को

कोई बोलता नहीं है मैं पुकारता रहा हूँ
कभी बुत-कदे में बुत को कभी का'बे में ख़ुदा को



इक सुब्ह है जो हुई नहीं है अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal

इक सुब्ह है जो हुई नहीं है 
इक रात है जो कटी नहीं है 

मक़्तूलों का क़हत पड़ न जाए 
क़ातिल की कहीं कमी नहीं है 

वीरानों से आ रही है आवाज़ 
तख़्लीक़-ए-जुनूँ रुकी नहीं है 

है और ही कारोबार-ए-मस्ती 
जी लेना तो ज़िंदगी नहीं है 

साक़ी से जो जाम ले न बढ़ कर 
वो तिश्नगी तिश्नगी नहीं है 

आशिक़-कुशी ओ फ़रेब-कारी 
ये शेवा-ए-दिलबरी नहीं है 

भूखों की निगाह में है बिजली 
ये बर्क़ अभी गिरी नहीं है 

दिल में जो जलाई थी किसी ने 
वो शम-ए-तरब बुझी नहीं है 

इक धूप सी है जो ज़ेर-ए-मिज़्गाँ 
वो आँख अभी उठी नहीं है 

हैं काम बहुत अभी कि दुनिया 
शाइस्ता-ए-आदमी नहीं है 

हर रंग के आ चुके हैं फ़िरऔन 
लेकिन ये जबीं झुकी नहीं है 



काम अब कोई न आएगा बस इक दिल के सिवा अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal

काम अब कोई न आएगा बस इक दिल के सिवा
रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-क़ातिल के सिवा

बाइस-ए-रश्क है तन्हा-रवी-ए-रह-रव-ए-शौक़
हम-सफ़र कोई नहीं दूरी-ए-मंज़िल के सिवा

हम ने दुनिया की हर इक शय से उठाया दिल को
लेकिन एक शोख़ के हंगामा-ए-महफ़िल के सिवा

तेग़ मुंसिफ़ हो जहाँ दार-ओ-रसन हों शाहिद
बे-गुनह कौन है उस शहर में क़ातिल के सिवा

जाने किस रंग से आई है गुलिस्ताँ में बहार
कोई नग़्मा ही नहीं शोर-ए-सलासिल के सिवा


ख़िरद वालो जुनूँ वालों के वीरानों में आ जाओ अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal

ख़िरद वालो जुनूँ वालों के वीरानों में आ जाओ
दिलों के बाग़ ज़ख़्मों के गुलिस्तानों में आ जाओ

ये दामान ओ गरेबाँ अब सलामत रह नहीं सकते
अभी तक कुछ नहीं बिगड़ा है दीवानों में आ जाओ

सितम की तेग़ ख़ुद दस्त-ए-सितम को काट देती है
सितम-रानो तुम अब अपने अज़ा-ख़ानों में आ जाओ

ये कब तक सर्द लाशें बे-हिसी के बर्फ़-ख़ानों में
चिराग़-ए-दर्द से रौशन शबिस्तानों में आ जाओ

ये कब तक सीम-ओ-ज़र के जंगलों में मश्क़-ए-ख़ूँ-ख़्वारी
ये इंसानों की बस्ती है अब इंसानों में आ जाओ

कभी शबनम का क़तरा बन के चमको लाला-ओ-गुल पर
कभी दरियाओं की सूरत बयाबानों में आ जाओ

हवा है सख़्त अब अश्कों के परचम उड़ नहीं सकते
लहू के सुर्ख़ परचम ले के मैदानों में आ जाओ

जराहत-ख़ाना-ए-दिल है तलाश-ए-रंग-ओ-निकहत में
कहाँ हो ऐ गुलिस्तानो गरेबानों में आ जाओ

ज़माना कर रहा है एहतिमाम-ए-जश्न-ए-बेदारी
गरेबाँ चाक कर के शोला-दामानों में आ जाओ



ख़ूगर-ए-रू-ए-ख़ुश-जमाल हैं हम अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal

ख़ूगर-ए-रू-ए-ख़ुश-जमाल हैं हम 
नाज़-ए-परवर्दा-ए-विसाल हैं हम 

हम को यूँ राएगाँ न कर देना 
हासिल-ए-फ़स्ल-ए-माह-ओ-साल हैं हम 

रंग ही रंग ख़ुशबू ही ख़ुशबू 
गर्दिश-ए-साग़र-ए-ख़याल हैं हम 

रौनक़-ए-कारोबार-ए-हस्ती हैं 
हम ने माना शिकस्ता-हाल हैं हम 

माल-ओ-ज़र, माल-ओ-ज़र की क़ीमत क्या 
साहिब-ए-दौलत-ए-कमाल हैं हम 

किस की रानाई-ए-ख़याल है तू 
तेरी रानाई-ए-जमाल हैं हम 

ऐसे दीवाने फिर न आएँगे 
देख लो हम को बे-मिसाल हैं हम 

दौलत-ए-हुस्न-ए-ला-ज़वाल है तू 
दौलत-ए-इश्क़-ए-ला-ज़वाल हैं हम 



तख़्लीक़ पे फ़ितरत की गुज़रता है गुमाँ और अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal

तख़्लीक़ पे फ़ितरत की गुज़रता है गुमाँ और
इस आदम-ए-ख़ाकी ने बनाया है जहाँ और

ये सुब्ह है सूरज की सियाही से अँधेरी
आएगी अभी एक सहर महर-चकाँ और

बढ़नी है अभी और भी मज़लूम की ताक़त
घटनी है अभी ज़ुल्म की कुछ ताब-ओ-तवाँ और

तर होगी ज़मीं और अभी ख़ून-ए-बशर से
रोएगा अभी दीदा-ए-ख़ूनाबा-फ़िशाँ और

बढ़ने दो ज़रा और अभी कुछ दस्त-ए-तलब को
बढ़ जाएगी दो चार शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-बुताँ और

करना है अभी ख़ून-ए-जिगर सर्फ़-ए-बहाराँ
कुछ देर उठाना है अभी नाज़-ए-ख़िज़ाँ और

हम हैं वो बला-कश कि मसाइब से जहाँ के
हो जाते हैं शाइस्ता-ए-ग़म-हा-ए-जहाँ और


फ़रोग़-ए-दीदा-ओ-दिल लाला-ए-सहर की तरह अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal

फ़रोग़-ए-दीदा-ओ-दिल लाला-ए-सहर की तरह
उजाला बिन के रहो शम-ए-रहगुज़र की तरह

पयम्बरों की तरह से जियो ज़माने में
पयाम-ए-शौक़ बनो दौलत-ए-हुनर की तरह

ये ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी है हम-नफ़सो
सितारा बन के जले बुझ गए शरर की तरह

डरा सकी न मुझे तीरगी ज़माने की
अँधेरी रात से गुज़रा हूँ मैं क़मर की तरह

समुंदरों के तलातुम ने मुझ को पाला है
चमक रहा हूँ इसी वास्ते गुहर की तरह

तमाम कोह ओ तल ओ बहर ओ बर हैं ज़ेर-ए-नगीं
खुला हुआ हूँ मैं शाहीं के बाल-ओ-पर की तरह

तमाम दौलत-ए-कौनैन है ख़िराज उस का
ये दिल नहीं किसी लूटे हुए नगर की तरह

गुज़र के ख़ार से ग़ुंचे से गुल से शबनम से
मैं शाख़-ए-वक़्त में आया हूँ इक समर की तरह

मैं दिल में तल्ख़ी-ए-ज़हराब-ए-ग़म भी रखता हूँ
न मिस्ल-ए-शहद हूँ शीरीं न मैं शकर की तरह

ख़िज़ाँ के दस्त-ए-सितम ने मुझे छुआ है मगर
तमाम शो'ला ओ शबनम हूँ काशमर की तरह

मिरी नवा में है लुत्फ़-ओ-सुरूर-ए-सुब्ह-ए-नशात
हर एक शेर है रिंदों की शाम-ए-तर की तरह

ये फ़ातेहाना ग़ज़ल अस्र-ए-नौ का है आहंग
बुलंद ओ पस्त को देखा है दीदा-वर की तरह


 

फ़स्ल-ए-गुल फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ जो भी हो ख़ुश-दिल रहिए  अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal

फ़स्ल-ए-गुल फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ जो भी हो ख़ुश-दिल रहिए
कोई मौसम हो हर इक रंग में कामिल रहिए

मौज ओ गिर्दाब ओ तलातुम का तक़ाज़ा है कुछ और
रहिए मोहतात तो बस ता-लब-ए-साहिल रहिए

देखते रहिए कि हो जाए न कम शान-ए-जुनूँ
आइना बन के ख़ुद अपने ही मुक़ाबिल रहिए

उन की नज़रों के सिवा सब की निगाहें उट्ठीं
महफ़िल-ए-यार में भी ज़ीनत-ए-महफ़िल रहिए

दिल पे हर हाल में है सोहबत-ए-ना-जिंस हराम
हैफ़-सद-हैफ़ कि ना-जिंसों में शामिल रहिए

दाग़ सीने का दहकता रहे जलता रहे दिल
रात बाक़ी है जहाँ तक मह-ए-कामिल रहिए

जानिए दौलत-ए-कौनैन को भी जिंस-ए-हक़ीर
और दर-ए-यार पे इक बोसे के साइल रहिए

आशिक़ी शेव-ए-रिंदान-ए-बला-कश है मियाँ
वजह-ए-शाइस्तगी-ए-ख़ंजर-ए-क़ातिल रहिए


मस्ती-ए-रिंदाना हम सैराबी-ए-मय-ख़ाना हम अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal

मस्ती-ए-रिंदाना हम सैराबी-ए-मय-ख़ाना हम
गर्दिश-ए-तक़दीर से हैं गर्दिश-ए-पैमाना हम

ख़ून-ए-दिल से चश्म-ए-तर तक चश्म-ए-तर से ता-ब-ख़ाक
कर गए आख़िर गुल-ओ-गुलज़ार हर वीराना हम

क्या बला जब्र-ए-असीरी है कि आज़ादी में भी
दोश पर अपने लिए फिरते हैं ज़िंदाँ-ख़ाना हम

राह में फ़ौजों के पहरे सर पे तलवारों की छाँव
आए हैं ज़िंदाँ में भी बा-शौकत-ए-शाहाना हम

मिटते मिटते दे गए हम ज़िंदगी को रंग-ओ-नूर
रफ़्ता रफ़्ता बन गए इस अहद का अफ़्साना हम

या जगा देते हैं ज़र्रों के दिलों में मय-कदे
या बना लेते हैं मेहर-ओ-माह को पैमाना हम

क़ैद हो कर और भी ज़िंदाँ में उड़ता है ख़याल
रक़्स ज़ंजीरों में भी करते हैं आज़ादाना हम


मैं जहाँ तुम को बुलाता हूँ वहाँ तक आओ अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal

मैं जहाँ तुम को बुलाता हूँ वहाँ तक आओ
मेरी नज़रों से गुज़र कर दिल-ओ-जाँ तक आओ

फिर ये देखो कि ज़माने की हवा है कैसी
साथ मेरे मिरे फ़िरदौस-ए-जवाँ तक आओ

हौसला हो तो उड़ो मेरे तसव्वुर की तरह
मेरी तख़्ईल के गुलज़ार-ए-जनाँ तक आओ

तेग़ की तरह चलो छोड़ के आग़ोश-ए-नियाम
तीर की तरह से आग़ोश-ए-कमाँ तक आओ

फूल के गिर्द फिरो बाग़ में मानिंद-ए-नसीम
मिस्ल-ए-परवाना किसी शम-ए-तपा तक आओ

लो वो सदियों के जहन्नम की हदें ख़त्म हुईं
अब है फ़िरदौस ही फ़िरदौस जहाँ तक आओ

छोड़ कर वहम-ओ-गुमाँ हुस्न-ए-यक़ीं तक पहुँचो
पर यक़ीं से भी कभी वहम-ओ-गुमाँ तक आओ

इसी दुनिया में दिखा दें तुम्हें जन्नत की बहार
शैख़-जी तुम भी ज़रा कू-ए-बुताँ तक आओ


याद आए हैं अहद-ए-जुनूँ के खोए हुए दिल-दार बहुत अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal

याद आए हैं अहद-ए-जुनूँ के खोए हुए दिल-दार बहुत
उन से दूर बसाई बस्ती जिन से हमें था प्यार बहुत

एक इक कर के खिली थीं कलियाँ एक इक कर के फूल गए
एक इक कर के हम से बिछड़े बाग़-ए-जहाँ में यार बहुत

हुस्न के जल्वे आम हैं लेकिन ज़ौक़-ए-नज़ारा आम नहीं
इश्क़ बहुत मुश्किल है लेकिन इश्क़ के दावेदार बहुत

ज़ख़्म कहो या खिलती कलियाँ हाथ मगर गुल-दस्ता है
बाग़-ए-वफ़ा से हम ने चुने हैं फूल बहुत और ख़ार बहुत

जो भी मिला है ले आए हैं दाग़-ए-दिल या दाग़-ए-जिगर
वादी वादी मंज़िल मंज़िल भटके हैं 'सरदार' बहुत


वुफ़ूर-ए-शौक़ की रंगीं हिकायतें मत पूछ अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal

वुफ़ूर-ए-शौक़ की रंगीं हिकायतें मत पूछ
लबों का प्यार निगह की शिकायतें मत पूछ

किसी निगाह की नस नस में तैरते निश्तर
वो इब्तिदा-ए-मोहब्बत की राहतें मत पूछ

वो नीम-शब वो जवाँ हुस्न वो वुफ़ूर-ए-नियाज़
निगाह ओ दिल ने जो की हैं इबादतें मत पूछ

हुजूम-ए-ग़म में भी जीना सिखा दिया हम को
ग़म-ए-जहाँ की हैं क्या क्या इनायतें मत पूछ

ये सिर्फ़ एक क़यामत है चैन की करवट
दबी हैं दिल में हज़ारों क़यामतें मत पूछ

बस एक हर्फ़-ए-बग़ावत ज़बाँ से निकला था
शहीद हो गईं कितनी रिवायतें मत पूछ

अब आज क़िस्सा-ए-दारा-ओ-जम का क्या होगा
हमारे पास हैं अपनी हिकायतें मत पूछ

निशान-ए-हिटलरी-ओ-क़ैसरी नहीं मिलता
जो इब्रतों ने लिखी हैं इबारतें मत पूछ

नशात-ए-ज़ीस्त फ़क़त अहल-ए-ग़म की है मीरास
मिलेंगी और अभी कितनी दौलतें मत पूछ


शाख़-ए-गुल है कि ये तलवार खिंची है यारो अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal

शाख़-ए-गुल है कि ये तलवार खिंची है यारो
बाग़ में कैसी हवा आज चली है यारो

कौन है ख़ौफ़-ज़दा जश्न-ए-सहर से पूछो
रात की नब्ज़ तो अब छूट चली है यारो

ताक के दिल से दिल-ए-शीशा-ओ-पैमाना तक
एक इक बूँद में सौ शम्अ जली है यारो

चूम लेना लब-ए-लालीं का है रिंदों को रवा
रस्म ये बादा-ए-गुल-गूँ से चली है यारो

सिर्फ़ इक ग़ुंचा से शर्मिंदा है आलम की बहार
दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता के होंटों पे हँसी है यारो

वो जो अंगूर के ख़ोशों में थी मानिंद-ए-नुजूम
ढल के अब जाम में ख़ुर्शीद बनी है यारो

बू-ए-ख़ूँ आती है मिलता है बहारों का सुराग़
जाने किस शोख़ सितमगर की गली है यारो

ये ज़मीं जिस से है हम ख़ाक-नशीनों का उरूज
ये ज़मीं चाँद सितारों में घिरी है यारो

ज़ुरअ-ए-तल्ख़ भी है जाम-गवारा भी है
ज़िंदगी जश्न-गह-ए-बादा-कशी है यारो



शिकस्त-ए-शौक़ को तकमील-ए-आरज़ू कहिए अली सरदार जाफ़री ग़ज़ल /Ali Sardar Jafri Ghazal

शिकस्त-ए-शौक़ को तकमील-ए-आरज़ू कहिए
जो तिश्नगी हो तो पैमाना-ओ-सुबू कहिए

ख़याल-ए-यार को दीजिए विसाल-ए-यार का नाम
शब-ए-फ़िराक़ को गैसू-ए-मुश्क-बू कहिए

चराग़-ए-अंजुमन-ए-हैरत-ए-नज़ारा थे
वो लाला-रू जिन्हें अब दाग़-ए-आरज़ू कहिए

महक रही है ग़ज़ल ज़िक्र-ए-ज़ुल्फ़-ए-ख़ूबाँ से
नसीम-ए-सुब्ह की मानिंद कू-ब-कू कहिए

शिकायतें भी बहुत हैं हिकायतें भी बहुत
मज़ा तो जब है कि यारों के रू-ब-रू कहिए

ब-हुक्म कीजिए फिर ख़ंजरों की दिलदारी
दहान-ए-ज़ख़्म से अफ़्साना-ए-गुलू कहिए

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