अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

 अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal













कहा जो मैं ने कि यूसुफ़ को ये हिजाब न था 
 अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

कहा जो मैं ने कि यूसुफ़ को ये हिजाब न था
तो हँस के बोले वो मुँह क़ाबिल-ए-नक़ाब न था

शब-ए-विसाल भी वो शोख़ बे-हिजाब न था
नक़ाब उलट के भी देखा तो बे-नक़ाब न था

लिपट के चूम लिया मुँह मिटा दिया उन का
नहीं का उन के सिवा इस के कुछ जवाब न था

मिरे जनाज़े पे अब आते शर्म आती है
हलाल करने को बैठे थे जब हिजाब न था

नसीब जाग उठे सो गए जो पाँव मिरे
तुम्हारे कूचे से बेहतर मक़ाम-ए-ख़्वाब न था

ग़ज़ब किया कि इसे तू ने मोहतसिब तोड़ा
अरे ये दिल था मिरा शीशा-ए-शराब न था

ज़माना वस्ल में लेता है करवटें क्या क्या
फ़िराक़-ए-यार के दिन एक इंक़लाब न था

तुम्हीं ने क़त्ल किया है मुझे जो तनते हो
अकेले थे मलक-उल-मौत हम-रिकाब न था

दुआ-ए-तौबा भी हम ने पढ़ी तो मय पी कर
मज़ा ही हम को किसी शय का बे-शराब न था

मैं रू-ए-यार का मुश्ताक़ हो के आया था
तिरे जमाल का शैदा तो ऐ नक़ाब न था

बयान की जो शब-ए-ग़म की बेकसी तो कहा
जिगर में दर्द न था दिल में इज़्तिराब न था

वो बैठे बैठे जो दे बैठे क़त्ल-ए-आम का हुक्म
हँसी थी उन की किसी पर कोई इताब न था

जो लाश भेजी थी क़ासिद की भेजते ख़त भी
रसीद वो तो मिरे ख़त की थी जवाब न था

सुरूर-ए-क़त्ल से थी हाथ पाँव को जुम्बिश
वो मुझ पे वज्द का आलम था इज़्तिराब न था

सबात बहर-ए-जहाँ में नहीं किसी को 'अमीर'
इधर नुमूद हुआ और उधर हुबाब न था


ऐ ज़ब्त देख इश्क़ की उन को ख़बर न हो  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

ऐ ज़ब्त देख इश्क़ की उन को ख़बर न हो
दिल में हज़ार दर्द उठे आँख तर न हो

मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब
दो-चार साल तक तो इलाही सहर न हो

इक फूल है गुलाब का आज उन के हाथ में
धड़का मुझे ये है कि किसी का जिगर न हो

ढूँडे से भी न मअ'नी-ए-बारीक जब मिला
धोका हुआ ये मुझ को कि उस की कमर न हो

उल्फ़त की क्या उम्मीद वो ऐसा है बेवफ़ा
सोहबत हज़ार साल रहे कुछ असर न हो

तूल-ए-शब-ए-विसाल हो मिस्ल-ए-शब-ए-फ़िराक़
निकले न आफ़्ताब इलाही सहर न हो



उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ
ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ

डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा
कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ

ज़ब्त कम-बख़्त ने याँ आ के गला घोंटा है
कि उसे हाल सुनाऊँ तो सुना भी न सकूँ

नक़्श-ए-पा देख तो लूँ लाख करूँगा सज्दे
सर मिरा अर्श नहीं है जो झुका भी न सकूँ

बेवफ़ा लिखते हैं वो अपने क़लम से मुझ को
ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ

इस तरह सोए हैं सर रख के मेरे ज़ानू पर
अपनी सोई हुई क़िस्मत को जगा भी न सकूँ



अमीर लाख इधर से उधर ज़माना हुआ  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

अमीर लाख इधर से उधर ज़माना हुआ
वो बुत वफ़ा पे न आया मैं बे-वफ़ा न हुआ

सर-ए-नियाज़ को तेरा ही आस्ताना हुआ
शराब-ख़ाना हुआ या क़िमार-ख़ाना हुआ

हुआ फ़रोग़ जो मुझ को ग़म-ए-ज़माना हुआ
पड़ा जो दाग़ जिगर में चराग़-ए-ख़ाना हुआ

उम्मीद जा के नहीं उस गली से आने की
ब-रंग-ए-उम्र मिरा नामा-बर रवाना हुआ

हज़ार शुक्र न ज़ाए हुई मिरी खेती
कि बर्क़ ओ सैल में तक़्सीम दाना दाना हुआ

क़दम हुज़ूर के आए मिरे नसीब खुले
जवाब-ए-क़स्र-ए-सुलैमाँ ग़रीब-ख़ाना हुआ

तिरे जमाल ने ज़ोहरा को दौर दिखलाया
तिरे जलाल से मिर्रीख़ का ज़माना हुआ

कोई गया दर-ए-जानाँ पे हम हुए पामाल
हमारा सर न हुआ संग-ए-आस्ताना हुआ

फ़रोग़-ए-दिल का सबब हो गई बुझी जो हवस
शरार-ए-कुश्ता से रौशन चराग़-ए-ख़ाना हुआ

जब आई जोश पे मेरे करीम की रहमत
गिरा जो आँख से आँसू दुर-ए-यगाना हुआ

हसद से ज़हर तन-ए-आसमाँ में फैल गया
जो अपनी किश्त में सरसब्ज़ कोई दाना हुआ

चुने महीनों ही तिनके ग़रीब बुलबुल ने
मगर नसीब न दो रोज़ आशियाना हुआ

ख़याल-ए-ज़ुल्फ़ में छाई ये तीरगी शब-ए-हिज्र
कि ख़ाल-ए-चेहरा-ए-ज़ख़्मी चराग़-ए-ख़ाना हुआ

ये जोश-ए-गिर्या हुआ मेरे सैद होने पर
कि चश्म-ए-दाम के आँसू से सब्ज़ दाना हुआ

न पूछ नाज़-ओ-नियाज़ उस के मेरे कब से हैं
ये हुस्न ओ इश्क़ तो अब है उसे ज़माना हुआ

उठाए सदमे पे सदमे तो आबरू पाई
अमीर टूट के दिल गौहर-ए-यगाना हुआ


अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है
हम मरे जाते हैं तुम कहते हो हाल अच्छा है

तुझ से माँगूँ मैं तुझी को कि सभी कुछ मिल जाए
सौ सवालों से यही एक सवाल अच्छा है

देख ले बुलबुल ओ परवाना की बेताबी को
हिज्र अच्छा न हसीनों का विसाल अच्छा है

आ गया उस का तसव्वुर तो पुकारा ये शौक़
दिल में जम जाए इलाही ये ख़याल अच्छा है

आँखें दिखलाते हो जोबन तो दिखाओ साहब
वो अलग बाँध के रक्खा है जो माल अच्छा है

बर्क़ अगर गर्मी-ए-रफ़्तार में अच्छी है 'अमीर'
गर्मी-ए-हुस्न में वो बर्क़-जमाल अच्छा है



कुछ ख़ार ही नहीं मिरे दामन के यार हैं  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

कुछ ख़ार ही नहीं मिरे दामन के यार हैं
गर्दन में तौक़ भी तो लड़कपन के यार हैं

सीना हो कुश्तगान-ए-मोहब्बत का या गला
दोनों ये तेरे ख़ंजर-ए-आहन के यार हैं

ख़ातिर हमारी करता है दैर-ओ-हरम में कौन
हम तो न शैख़ के न बरहमन के यार हैं

क्या पूछता है मुझ से निशाँ सैल-ओ-बर्क़ का
दोनों क़दीम से मिरे ख़िर्मन के यार हैं

क्या गर्म हैं कि कहते हैं ख़ूबान-ए-लखनऊ
लंदन को जाएँ वो जो फिरंगन के यार हैं

वो दुश्मनी करें तो करें इख़्तियार है
हम तो अदू के दोस्त हैं दुश्मन के यार हैं

कुछ इस चमन में सब्ज़ा-ए-बेगाना हम नहीं
नर्गिस के दोस्त लाला-ओ-सौसन के यार हैं

काँटे हैं जितने वादी-ए-ग़ुर्बत के ऐ जुनूँ
सब आस्तीं के जेब के दामन के यार हैं

गुम-गश्तगी में राह बताता है हम को कौन
है ख़िज़्र जिन का नाम वो रहज़न के यार हैं

चलते हैं शौक़-ए-बर्क़-ए-तजल्ली में क्या है ख़ौफ़
चीते तमाम वादी-ए-ऐमन के यार में

पीरी मुझे छुड़ाती है अहबाब से 'अमीर'
दंदाँ नहीं ये मेरे लड़कपन के यार हैं


क्या रोके क़ज़ा के वार तावीज़  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

क्या रोके क़ज़ा के वार तावीज़ 
क़िल'अ है न कुछ हिसार तावीज़ 

चोटी में है मुश्क-बार तावीज़ 
या फ़ित्ना-ए-रोज़गार तावीज़ 

दोनों ने न दर्द-ए-दिल मिटाया 
गंडे का है रिश्ता-दार तावीज़ 

क्या नाद-ए-अली में भी असर है 
चारों टुकड़े हैं चार तावीज़ 

डरता हूँ न सुब्ह हो शब-ए-वस्ल 
है महर वो ज़र-निगार तावीज़ 

हम को भी हो कुछ उमीद-ए-तस्कीं 
खोए जो तप-ए-ख़यार तावीज़ 

पत्तां को जड़ हमारी पहुँची 
गाड़ा तह-ए-पा-ए-यार तावीज़ 

हाजत नहीं उन को नौ-रतन की 
बाज़ू पे हैं पाँच चार तावीज़ 

खटके वो न आए फ़ातिहे को 
देखा जो सर-ए-मज़ार तावीज़ 

पी जाएँगे घोल कर किसे आप 
है नक़्श न ख़ाकसार तावीज़ 

ऐ तुर्क टलें बलाएँ सर से 
इक तेग़ का ख़त-ए-हज़ार तावीज़ 

डर है तुम्हें कंकनों से लाज़िम 
लाया तो है सादा-कार तावीज़ 

इक्सीर का नुस्ख़ा इस को समझूँ 
खोए जो तिरा ग़ुबार तावीज़ 

मजमा है 'अमीर' की लहद पर 
मेले का है इश्तिहार तावीज़ 



गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं
सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं

निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया
कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं

फ़िराक़ में तिरे आशिक़ को जा के कल देखा
कि वो तो हेच था कुछ अश्क थे कुछ आहें थीं

बगूले अब हैं कि ग़ुर्बत है गोर-ए-शाहाँ पर
सरों पे चत्र जिलौ में कभी सिपाहें थीं

हज़ारों लोट गए कल उठी जो वो चिलमन
ख़दंग मूए-ए-मिज़ा बर्छियाँ निगाहें थीं

किया ये शौक़ ने अंधा मुझे न सूझा कुछ
वगर्ना रब्त की उस से हज़ार राहें थीं

ये ज़ोफ़ है कि निकलती नहीं हैं अब दिल से
कभी फ़लक से भी ऊँची हमारी आहें थीं

जिगर में हिज्र की कल चुभ रही थीं कुछ फ़ाँसें
मगर जो ग़ौर से देखा तिरी निगाहें थीं

पहुँच गए सर-ए-मंज़िल चले जो चाल नई
उन्हीं में फेर था देखी हुई जो राहें थीं

फ़लक के दौर से दुनिया बदल गई वर्ना
जहाँ बने हैं ये मय-ख़ाने ख़ान-क़ाहें थीं

ये ज़ोफ़ अब है कि हिलना गिराँ है क़दमों को
सुबुक-रवी में कभी इन को दस्तगाहें थीं

मुशाएरे से हसीं क्यूँ न छीन ले जाते
रुबाइयाँ मिरी चू गो शुबह कुलाहें थीं

हसीन ज़र के हैं तालिब कि अब हैं गिर्द-ए-'अमीर'
ग़रीब हम थे तो ये प्यार था न चाहें थीं



गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी 
कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी 

जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले 
बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी 

कहाँ ग़ुंचा कहाँ उस का दहन तंग 
बढ़ाई शायरों ने बात थोड़ी 

उठे क्या ज़ानू-ए-ग़म से सर अपना 
बहुत गुज़री रही हैहात थोड़ी 

ख़याल-ए-ज़ब्त-ए-गिर्या है जो हम को 
बहुत इमसाल है बरसात थोड़ी 

पिलाए ले के नक़द-ए-होश साक़ी 
तही-दस्तों की है औक़ात थोड़ी 

वही है आसमाँ पर गंज-ए-अंजुम 
मिली थी जो तिरी ख़ैरात थोड़ी 

तिरा ऐ दुख़्त-ए-रज़ वासिफ़ है वाइज़ 
पए-हुर्मत है इतनी बात थोड़ी 

चलो मंज़िल 'अमीर' आँखें तो खोलो 
निहायत रह गई है रात थोड़ी 

 

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ 
मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ 

तेरे कहने से रिंद जाएँगे 
ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़ 

अल्लाह अल्लाह ये किब्र और ये ग़ुरूर 
क्या ख़ुदा का है दूसरा वाइज़ 

बे-ख़ता मय-कशों पे चश्म-ए-ग़ज़ब 
हश्र होने दे देखना वाइज़ 

हम हैं क़हत-ए-शराब से बीमार 
किस मरज़ की है तू दवा वाइज़ 

रह चुका मय-कदे में सारी उम्र 
कभी मय-ख़ाने में भी आ वाइज़ 

हज्व-ए-मय कर रहा था मिम्बर पर 
हम जो पहुँचे तो पी गया वाइज़ 

दुख़्त-ए-रज़ को बुरा मिरे आगे 
फिर न कहना कभी सुना वाइज़ 

आज करता हूँ वस्फ़-ए-मय मैं 'अमीर' 
देखूँ कहता है इस में क्या वाइज़ 


 

जब से बुलबुल तू ने दो तिनके लिए  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

जब से बुलबुल तू ने दो तिनके लिए 
टूटती हैं बिजलियाँ इन के लिए 

है जवानी ख़ुद जवानी का सिंगार 
सादगी गहना है इस सिन के लिए 

कौन वीराने में देखेगा बहार 
फूल जंगल में खिले किन के लिए 

सारी दुनिया के हैं वो मेरे सिवा 
मैं ने दुनिया छोड़ दी जिन के लिए 

बाग़बाँ कलियाँ हों हल्के रंग की 
भेजनी है एक कम-सिन के लिए 

सब हसीं हैं ज़ाहिदों को ना-पसंद 
अब कोई हूर आएगी इन के लिए 

वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर 
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए 

सुब्ह का सोना जो हाथ आता 'अमीर' 
भेजते तोहफ़ा मोअज़्ज़िन के लिए 



तीर पर तीर लगाओ तुम्हें डर किस का है  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

तीर पर तीर लगाओ तुम्हें डर किस का है
सीना किस का है मिरी जान जिगर किस का है

ख़ौफ़-ए-मीज़ान-ए-क़यामत नहीं मुझ को ऐ दोस्त
तू अगर है मिरे पल्ले में तो डर किस का है

कोई आता है अदम से तो कोई जाता है
सख़्त दोनों में ख़ुदा जाने सफ़र किस का है

छुप रहा है क़फ़स-ए-तन में जो हर ताइर-ए-दिल
आँख खोले हुए शाहीन-ए-नज़र किस का है

नाम-ए-शाइर न सही शेर का मज़मून हो ख़ूब
फल से मतलब हमें क्या काम शजर किस का है

सैद करने से जो है ताइर-ए-दिल के मुंकिर
ऐ कमाँ-दार तिरे तीर में पर किस का है

मेरी हैरत का शब-ए-वस्ल ये बाइ'स है 'अमीर'
सर ब-ज़ानू हूँ कि ज़ानू पे ये सर किस का है


दिल जो सीने में ज़ार सा है कुछ  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

दिल जो सीने में ज़ार सा है कुछ 
ग़म से बे-इख़्तियार सा है कुछ 

रख़्त-ए-हस्ती बदन पे ठीक नहीं 
जामा-ए-मुस्तआर सा है कुछ 

चश्म-ए-नर्गिस कहाँ वो चश्म कहाँ 
नश्शा कैसा ख़ुमार सा है कुछ 

नख़्ल-ए-उम्मीद में न फूल न फल 
शजर-ए-बे-बहार सा है कुछ 

साक़िया हिज्र में ये अब्र नहीं 
आसमाँ पर ग़ुबार सा है कुछ 

कल तो आफ़त थी दिल की बेताबी 
आज भी बे-क़रार सा है कुछ 

मुर्दा है दिल तो गोर है सीना 
दाग़ शम-ए-मज़ार सा है कुछ 

इस को दुनिया की उस को ख़ुल्द की हिर्स 
रिंद है कुछ न पारसा है 

पहले इस से था होशियार 'अमीर' 
अब तो बे-इख़्तियार सा है कुछ 


न बेवफ़ाई का डर था न ग़म जुदाई का  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

न बेवफ़ाई का डर था न ग़म जुदाई का
मज़ा में क्या कहूँ आग़ाज़-ए-आश्नाई का

कहाँ नहीं है तमाशा तिरी ख़ुदाई का
मगर जो देखने दे रोब किबरियाई का

वो ना-तवाँ हूँ अगर नब्ज़ को हुई जुम्बिश
तो साफ़ जोड़ जुदा हो गया कलाई का

शब-ए-विसाल बहुत कम है आसमाँ से कहो
कि जोड़ दे कोई टुकड़ा शब-ए-जुदाई का

ये जोश-ए-हुस्न से तंग आई है क़बा इन की
कि बंद बंद है ख़्वाहाँ गिरह-कुशाई का

कमान हाथ से रख सैद-गाह-ए-इरफ़ाँ में
कि तीर सैद है याँ दाम-ए-ना-रसाई का

वो बद-नसीब हूँ यार आए मेरे घर तो बने
सिमट के वस्ल की शब तिल रुख़-ए-जुदाई का

हज़ारों काफ़िर ओ मोमिन पड़े हैं सज्दे में
बुतों के घर में भी सामान है ख़ुदाई का

तमाम हो गए हम पहले ही निगाह में हैफ़
न रात वस्ल की देखी न दिन जुदाई का

नहीं है मोहर लिफ़ाफ़ा पे ख़त के ऐ क़ासिद
ये दाग़ है मिरी क़िस्मत की ना-रसाई का

नक़ाब डाल के ऐ आफ़्ताब-ए-हश्र निकल
ख़ुदा से डर ये कहीं दिन है ख़ुद-नुमाई का

नहीं क़रार घड़ी भर किसी के पहलू में
ये ज़ौक़ है तिरे नावक को दिलरुबाई का

मरी तरफ़ से कोई जा के कोहकन से कहे
नहीं नहीं ये महल ज़ोर-आज़माई का

कहा जो मैं ने कि मैं ख़ाक-ए-राह हूँ तेरा
तो बोले है अभी पिंदार ख़ुद-नुमाई का

जुनूँ जो मेरी तरफ़ हो वो जस्त-ओ-ख़ेज़ करूँ
कि दिल हो टूट के टुकड़े शिकस्ता-पाई का

'अमीर' रवैय्ये अपने नसीब को ऐसा
कि हो सपेद सियह अब्र ना-रसाई का



पहले तो मुझे कहा निकालो  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

पहले तो मुझे कहा निकालो 
फिर बोले ग़रीब है बुला लो 

बे-दिल रखने से फ़ाएदा क्या 
तुम जान से मुझ को मार डालो 

उस ने भी तो देखी हैं ये आँखें 
आँख आरसी पर समझ के डालो 

आया है वो मह बुझा भी दो शम्अ 
परवानों को बज़्म से निकालो 

घबरा के हम आए थे सू-ए-हश्र 
याँ पेश है और माजरा लो 

तकिए में गया तो मैं पुकारा 
शब तीरा है जागो सोने वालो 

और दिन पे 'अमीर' तकिया कब तक 
तुम भी तो कुछ आप को सँभालो 


पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया
बे-कार है जो दाँत दहन से निकल गया

ठहरें कभी कजों में न दम भर भी रास्त-रौ
आया कमाँ में तीर तो सन से निकल गया

ख़िलअ'त पहन के आने की थी घर में आरज़ू
ये हौसला भी गोर-ओ-कफ़न से निकल गया

पहलू में मेरे दिल को न ऐ दर्द कर तलाश
मुद्दत हुई ग़रीब वतन से निकल गया

मुर्ग़ान-ए-बाग़ तुम को मुबारक हो सैर-ए-गुल
काँटा था एक मैं सो चमन से निकल गया

क्या रंग तेरी ज़ुल्फ़ की बू ने उड़ा दिया
काफ़ूर हो के मुश्क ख़ुतन से निकल गया

प्यासा हूँ इस क़दर कि मिरा दिल जो गिर पड़ा
पानी उबल के चाह-ए-ज़क़न से निकल गया

सारा जहान नाम के पीछे तबाह है
इंसान किया अक़ीक़-ए-यमन से निकल गया

काँटों ने भी न दामन-ए-गुलचीं पकड़ लिया
बुलबुल को ज़ब्ह कर के चमन से निकल गया

क्या शौक़ था जो याद सग-ए-यार ने किया
हर उस्तुख़्वाँ तड़प के बदन से निकल गया

ऐ सब्ज़ा रंग-ए-ख़त भी बना अब तो बोसा दे
बेगाना था जो सब्ज़ा चमन से निकल गया

मंज़ूर इश्क़ को जो हुआ औज-ए-हुस्न पर
कुमरी का नाला सर्व-ए-चमन से निकल गया

मद्द-ए-नज़र रही हमें ऐसी रज़ा-ए-दोस्त
काटी ज़बाँ जो शिकवा दहन से निकल गया

ताऊस ने दिखाए जो अपने बदन के दाग़
रोता हुआ सहाब चमन से निकल गया

सहरा में जब हुई मुझे ख़ुश-चश्मों की तलाश
कोसों मैं आहुवान-ए-ख़ुतन से निकल गया

ख़ंजर खिंचा जो म्यान से चमका मियान-ए-सफ़
जौहर खुले जो मर्द वतन से निकल गया

में शेर पढ़ के बज़्म से किया उठ गया 'अमीर'
बुलबुल चहक के सेहन-ए-चमन से निकल गया


फूलों में अगर है बू तुम्हारी  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

फूलों में अगर है बू तुम्हारी 

काँटों में भी होगी ख़ू तुम्हारी 

उस दिल पे हज़ार जान सदक़े 

जिस दिल में है आरज़ू तुम्हारी 

दो दिन में गुलू बहार क्या की 

रंगत वो रही न बू तुम्हारी 

चटका जो चमन में ग़ुंचा-ए-गुल 

बू दे गई गुफ़्तुगू तुम्हारी 

मुश्ताक़ से दूर भागती है 

इतनी है अजल में ख़ू तुम्हारी 

गर्दिश से है महर-ओ-मह के साबित 

उन को भी है जुस्तुजू तुम्हारी 

आँखों से कहो कमी न करना 

अश्कों से है आबरू तुम्हारी 

लो सर्द हुआ मैं नीम-बिस्मिल 

पूरी हुई आरज़ू तुम्हारी 

सब कहते हैं जिस को लैलतुल-क़द्र 

है काकुल-ए-मुश्क-बू तुम्हारी 

तन्हा न फिरो 'अमीर' शब को 

है घात में हर अदू तुम्हारी 



बात करने में तो जाती है मुलाक़ात की रात  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

 बात करने में तो जाती है मुलाक़ात की रात
क्या बरी बात है रह जाओ यहीं रात की रात

ज़र्रे अफ़्शाँ के नहीं किर्मक-ए-शब-ताब से कम
है वो ज़ुल्फ़-ए-अरक़-आलूद कि बरसात की रात

ज़ाहिद उस ज़ुल्फ़ फँस जाए तो इतना पूछूँ
कहिए किस तरह कटी क़िबला-ए-हाजात की रात

शाम से सुब्ह तलक चलते हैं जाम-ए-मय-ए-ऐश
ख़ूब होती है बसर अहल-ए-ख़राबात की रात

वस्ल चाहा शब-ए-मेराज तो ये उज़्र किया
है ये अल्लाह ओ पयम्बर की मुलाक़ात की रात

हम मुसाफ़िर हैं ये दुनिया है हक़ीक़त में सरा
है तवक़्क़ुफ़ हमें इस जा तो फ़क़त रात की रात

चल के अब सो रहो बातें न बनाओ साहिब
वस्ल की शब है नहीं हर्फ़-ए-हिकायात की रात

लैलतुल-क़द्र है वसलत की दुआ माँग 'अमीर'
इस से बेहतर है कहाँ कोई मुनाजात की रात


मुझ मस्त को मय की बू बहुत है  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

मुझ मस्त को मय की बू बहुत है 
दीवाने को एक हू बहुत है 

मोती की तरह जो हो ख़ुदा-दाद 
थोड़ी सी भी आबरू बहुत है 

जाते हैं जो सब्र-ओ-होश जाएँ 
मुझ को ऐ दर्द तू बहुत है 

मानिंद-ए-कलीम बढ़ न ऐ दिल 
ये दर्द की गुफ़्तुगू बहुत है 

बे-कैफ़ हो मय तो ख़ुम के ख़ुम क्या 
अच्छी हो तो इक सुबू बहुत है 

क्या वस्ल की शब में मुश्किलें हैं 
फ़ुर्सत कम आरज़ू बहुत है 

मंज़ूर है ख़ून-ए-दिल जो ऐ यास 
अपने लिए आरज़ू बहुत है 

ऐ नश्तर-ए-ग़म हो लाख तन-ए-ख़ुश्क 
तेरे दम को लहू बहुत है 

छेड़े वो मिज़ा तो क्यूँ मैं रोऊँ 
आँखों में ख़लिश को मू बहुत है 

ग़ुंचे की तरह चमन में साक़ी 
अपना ही मुझे सुबू बहुत है 

क्या ग़म है 'अमीर' अगर नहीं माल 
इस वक़्त में आबरू बहुत है 



मैं रो के आह करूँगा जहाँ रहे न रहे  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

मैं रो के आह करूँगा जहाँ रहे न रहे
ज़मीं रहे न रहे आसमाँ रहे न रहे

रहे वो जान-ए-जहाँ ये जहाँ रहे न रहे
मकीं की ख़ैर हो या रब मकाँ रहे न रहे

अभी मज़ार पर अहबाब फ़ातिहा पढ़ लें
फिर इस क़दर भी हमारा निशाँ रहे न रहे

ख़ुदा के वास्ते कलमा बुतों का पढ़ ज़ाहिद
फिर इख़्तियार में ग़ाफ़िल ज़बाँ रहे न रहे

ख़िज़ाँ तो ख़ैर से गुज़री चमन में बुलबुल की
बहार आई है अब आशियाँ रहे न रहे

चला तो हूँ पए इज़हार-ए-दर्द-ए-दिल देखूँ
हुज़ूर-ए-यार मजाल-ए-बयाँ रहे न रहे

'अमीर' जमा हैं अहबाब दर्द-ए-दिल कह ले
फिर इल्तिफ़ात-ए-दिल-ए-दोस्ताँ रहे न रहे



शमशीर है सिनाँ है किसे दूँ किसे न दूँ  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

शमशीर है सिनाँ है किसे दूँ किसे न दूँ
इक जान-ए-ना-तवाँ है किसे दूँ किसे न दूँ

मेहमान इधर हुमा है उधर है सग-ए-हबीब
इक मुश्त उस्तुखाँ है किसे दूँ किसे न दूँ

दरबाँ हज़ार उस के यहाँ एक नक़्द-ए-जाँ
माल इस क़दर कहाँ है किसे दूँ किसे न दूँ

बुलबुल को भी है फूलों की गुलचीं को भी तलब
हैरान बाग़बाँ है किसे दूँ किसे न दूँ

सब चाहते हैं उस से जो वादा विसाल का
कहता है वो ज़बाँ है किसे दूँ किसे न दूँ

शहज़ादी दुख़्त-ए-रज़ के हज़ारों हैं ख़्वास्त-गार
चुप मुर्शिद-ए-मुग़ाँ है किसे दूँ किसे न दूँ

यारों को भी है बोसे की ग़ैरों को भी तलब
शश्दर वो जान-ए-जाँ है किसे दूँ किसे न दूँ

दिल मुझ से माँगते हैं हज़ारों हसीं 'अमीर'
कितना ये अरमुग़ाँ है किसे दूँ किसे न दूँ


साफ़ कहते हो मगर कुछ नहीं खुलता कहना  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

साफ़ कहते हो मगर कुछ नहीं खुलता कहना
बात कहना भी तुम्हारा है मुअम्मा कहना

रो के उस शोख़ से क़ासिद मिरा रोना कहना
हँस पड़े उस पे तो फिर हर्फ़-ए-तमन्ना कहना

मसल-ए-मक्तूब न कहने में है क्या क्या कहना
न मिरी तर्ज़-ए-ख़मोशी न किसी का कहना

और थोड़ी सी शब-ए-वस्ल बढ़ा दे या-रब
सुब्ह नज़दीक हमें उन से है क्या क्या कहना

फाड़ खाता है जो ग़ैरों को झपट कर सग-ए-यार
मैं ये कहता हूँ मिरे शेर तिरा क्या कहना

हर बुन-ए-मू-ए-मिज़ा में हैं यहाँ सौ तूफ़ाँ
ऐन ग़फ़लत है मरी आँख को दरिया कहना

वस्फ़-ए-रुख़ में जो सुने शेर वो हँस कर बोले
शेर हैं नूर के है नूर का तेरा कहना

ला सकोगे न ज़रा जल्वा-ए-दीदार की ताब
अरिनी मुँह से न ऐ हज़रत-ए-मूसा कहना

कर लिया अहद कभी कुछ न कहेंगे मुँह से
अब अगर सच भी कहें तुम हमें झूटा कहना

ख़ाक में ज़िद से मिलाओ न मिरे आँसू को
सच्चे मोती को मुनासिब नहीं झूटा कहना

कैसे नादाँ हैं जो अच्छों को बुरा कहते हैं
हो बुरा भी तो उसे चाहिए अच्छा कहना

दम-ए-आख़िर तू बुतो याद ख़ुदा करने दो
ज़िंदगी भर तो किया मैं ने तुम्हारा कहना

पढ़ते हैं देख के उस बुत को फ़रिश्ते भी दरूद
मर्हबा सल्ले-अला सल्ले-अला क्या कहना

ऐ बुतो तुम जो अदा आ के करो मस्जिद में
लब-ए-मेहराब कहे नाम-ए-ख़ुदा क्या कहना

इन हसीनों की जो तारीफ़ करो चिढ़ते हैं
सच तो ये है कि बुरा है उन्हें अच्छा कहना

शौक़ काबे लिए जाता है हवस जानिब-ए-दैर
मेरे अल्लाह बजा लाऊँ में किस का कहना

सारी महफ़िल को इशारों में लुटा दो ऐ जान
सीख लो चश्म-ए-सुख़न-गो से लतीफ़ा कहना

घटते घटते में रहा इश्क़-ए-कमर में आधा
जामा-ए-तन को मिरे चाहिए नीमा कहना

में तो आँखों से बजा लाता हूँ इरशाद-ए-हुज़ूर
आप सुनते नहीं कानों से भी मेरा कहना

चुस्ती-ए-तब्अ से उस्ताद का है क़ौल 'अमीर'
हो ज़मीं सुस्त मगर चाहिए अच्छा कहना


हँस के फ़रमाते हैं वो देख के हालत मेरी  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

हँस के फ़रमाते हैं वो देख के हालत मेरी
क्यूँ तुम आसान समझते थे मोहब्बत मेरी

बअ'द मरने के भी छोड़ी न रिफ़ाक़त मेरी
मेरी तुर्बत से लगी बैठी है हसरत मेरी

मैं ने आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी खेंचा तो कहा
पिस गई पिस गई बेदर्द नज़ाकत मेरी

आईना सुब्ह-ए-शब-ए-वस्ल जो देखा तो कहा
देख ज़ालिम ये थी शाम को सूरत मेरी

यार पहलू में है तन्हाई है कह दो निकले
आज क्यूँ दिल में छुपी बैठी है हसरत मेरी

हुस्न और इश्क़ हम-आग़ोश नज़र आ जाते
तेरी तस्वीर में खिंच जाती जो हैरत मेरी

किस ढिटाई से वो दिल छीन के कहते हैं 'अमीर'
वो मिरा घर है रहे जिस में मोहब्बत मेरी


हटाओ आइना उम्मीद-वार हम भी हैं  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

हटाओ आइना उम्मीद-वार हम भी हैं
तुम्हारे देखने वालों में यार हम भी हैं

तड़प के रूह ये कहती है हिज्र-ए-जानाँ में
कि तेरे साथ दिल-ए-बे-क़रार हम भी हैं

रहे दिमाग़ अगर आसमाँ पे दूर नहीं
कि तेरे कूचे में मस्त-ए-ग़ुबार हम भी हैं

कहो कि नख़्ल-ए-चमन हम से सर-कशी न करें
उन्हीं की तरह से बाग़-ओ-बहार हम भी हैं

हमारे आगे ज़रा हो समझ के ज़मज़मा-संज
कि एक नग़्मा-सरा ऐ हज़ार हम भी हैं

कहाँ तक आइने में देख-भाल इधर देखो
कि इक निगाह के उम्मीद-वार हम भी हैं

शराब मुँह से लगाते नहीं हैं ऐ ज़ाहिद
फ़िराक़-ए-यार में परहेज़-गार हम भी हैं

हमारा नाम भी लिख लो जो है क़लम जारी
क़दीम आप के ख़िदमत-गुज़ार हम भी हैं

हुमा हैं गिर्द मिरी हड्डियों के आठ पहर
सग आ के कहते हैं उम्मीद-वार हम भी हैं

जो लड़खड़ा के गिरे तू क़दम पे साक़ी के
'अमीर' मस्त नहीं होश्यार हम भी हैं



हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं  अमीर मीनाई ग़ज़ल / Ameer Minai Ghazal

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं 
ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं 

है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ 
लोग नाहक़ ख़राब होते हैं 

क्या कहें कैसे रोज़ ओ शब हम से 
अमल-ए-ना-सवाब होते हैं 

बादशह हैं गदा, गदा सुल्तान 
कुछ नए इंक़लाब होते हैं 

हम जो करते हैं मय-कदे में दुआ 
अहल-ए-मस्जिद को ख़्वाब होते हैं 

वही रह जाते हैं ज़बानों पर 
शेर जो इंतिख़ाब होते हैं 

कहते हैं मस्त रिंद-ए-सौदाई 
ख़ूब हम को ख़िताब होते हैं 

आँसुओं से 'अमीर' हैं रुस्वा 
ऐसे लड़के अज़ाब होते हैं 

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