Ekadashi Vrat Katha (Ekadasi Katha) कथा 10 - Katha 10

 चैत्रमास शुक्लपक्षकी 'कामदा' एकादशीका माहात्म्य


युधिष्ठिरने पूछा- वासुदेव! आपको नमस्कार है। अब मेरे सामने यह बताइये कि चैत्र शुक्लपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है? भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन् ! एकाग्रचित्त होकर यह पुरातन कथा सुनो, जिसे वसिष्ठजीने दिलीपके पूछने पर कहा था । दिलीपने पूछा- भगवन्! मैं एक बात सुनना चाहता हूँ। चैत्रमासके शुक्लपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है ? वसिष्ठजी बोले—राजन्! चैत्र शुक्लपक्षमें 'कामदा' नामकी एकादशी होती है। वह परम पुण्यमयी है। पापरूपी ईंधनके लिये तो वह दावानल ही है। प्राचीन कालकी बात है, नागपुर नामका एक सुन्दर नगर था, जहाँ सोनेके महल बने हुए थे। उस नगर में पुण्डरीक आदि महा भयंकर नाग निवास करते थे । पुण्डरीक नामका नाग उन दिनों वहाँ राज्य करता था। गन्धर्व, किन्नर और अप्सराएँ भी उस नगरीका सेवन करती थीं। वहाँ एक श्रेष्ठ अप्सरा थी, जिसका नाम ललिता था। उसके साथ ललित नामवाला गन्धर्व भी था। वे दोनों पति-पत्नीके रूपमें रहते थे। दोनों ही परस्पर कामसे पीड़ित रहा करते थे। ललिताके हृदयमें सदा पतिकी ही मूर्ति बसी रहती थी और ललितके हृदयमें सुन्दरी ललिताका नित्य निवास था। एक दिनकी बात है, नागराज पुण्डरीक राजसभामें बैठकर मनोरंजन कर रहा था। उस समय ललितका गान हो रहा था। किन्तु उसके साथ उसकी प्यारी ललिता नहीं थी । गाते-गाते उसे ललिताका स्मरण हो आया। अतः उसके पैरोंकी गति रुक गयी और जीभ लड़खड़ाने लगी। नागोंमें श्रेष्ठ कर्कोटकको ललितके मनका सन्ताप ज्ञात हो गया; अतः उसने राजा पुण्डरीकको उसके पैरोंकी गति रुकने एवं गानमें त्रुटि होनेकी बात बता दी। कर्कोटककी बात सुनकर नागराज पुण्डरीककी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। उसने गाते हुए कामातुर ललितको शाप दिया 'दुर्बुद्धे! तू मेरे सामने गान करते समय भी पत्नीके वशीभूत हो गया, इसलिये राक्षस हो जा।'


महाराज पुण्डरीकके इतना कहते ही वह गन्धर्व राक्षस हो गया। भयंकर मुख, विकराल आँखें और देखनेमात्रसे भय उपजानेवाला रूप। ऐसा राक्षस होकर वह कर्मका फल भोगने लगा। ललिता अपने पतिकी विकराल आकृति देख मन-ही-मन बहुत चिन्तित हुई। भारी दुःखसे कष्ट पाने लगी। सोचने लगी, 'क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? मेरे पति पापसे कष्ट पा रहे हैं।' वह रोती हुई घने जंगलोंमें पतिके पीछे-पीछे घूमने लगी वनमें उसे एक सुन्दर आश्रम दिखायी दिया, जहाँ एक शान्त मुनि बैठे हुए थे। उनका किसी भी प्राणीके साथ वैर-विरोध नहीं था ललिता शीघ्रताके साथ वहाँ गयी और मुनिको प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हुई। मुनि बड़े दयालु थे। उस दुःखिनीको देखकर वे इस प्रकार बोले

'शुभे! तुम कौन हो ? कहाँसे यहाँ आयी हो ? मेरे सामने सच-सच बताओ । '


ललिताने कहा-'महामुने! वीरधन्वा नामवाले एक गन्धर्व हैं। मैं उन्हीं महात्माकी पुत्री हूँ। मेरा नाम ललिता है। मेरे स्वामी अपने पाप-दोषके कारण राक्षस हो गये हैं। उनकी यह अवस्था देखकर मुझे चैन नहीं है। ब्रह्मन् ! इस समय मेरा जो कर्तव्य हो, वह बताइये। विप्रवर! जिस पुण्यके द्वारा मेरे पति राक्षसभावसे छुटकारा पा जायँ, उसका उपदेश कीजिये। '


ऋषि बोले- भद्रे ! इस समय चैत्रमासके शुक्लपक्षकी 'कामदा' नामक एकादशी तिथि है, जो सब पापोंको हरनेवाली और उत्तम है। तुम उसीका विधिपूर्वक व्रत करो और इस व्रतका जो पुण्य हो, उसे अपने स्वामीको दे डालो। पुण्य देनेपर क्षणभरमें ही उसके शापका दोष दूर हो जायगा । राजन्! मुनिका यह वचन सुनकर ललिताको बड़ा हर्ष हुआ। उसने एकादशीको उपवास करके द्वादशीके दिन उन ब्रह्मर्षिके समीप ही भगवान् वासुदेवके [ श्रीविग्रहके ] समक्ष अपने पतिके उद्धारके लिये यह वचन कहा- 'मैंने जो यह कामदा एकादशीका उपवासव्रत किया है, उसके पुण्यके प्रभावसे मेरे पतिका राक्षस-भाव दूर हो जाय।'


वसिष्ठजी कहते हैं-ललिताके इतना कहते ही उसी क्षण ललितका पाप दूर हो गया। उसने दिव्य देह धारण कर लिया। राक्षस-भाव चला गया और पुनः गन्धर्वत्वकी प्राप्ति हुई । नृपश्रेष्ठ! वे दोनों पति-पत्नी 'कामदा' के प्रभावसे पहलेकी अपेक्षा भी अधिक सुन्दर रूप धारण करके विमानपर आरूढ़ हो अत्यन्त शोभा पाने लगे। यह जानकर इस एकादशीके व्रतका यत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। मैंने लोगोंके हितके लिये तुम्हारे सामने इस व्रतका वर्णन किया है। कामदा एकादशी ब्रह्महत्या आदि पापों तथा पिशाचत्व आदि दोषोंका भी नाश करनेवाली है। राजन्! इसके पढ़ने और सुननेसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है।

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