Ekadashi Vrat Katha (Ekadasi Katha) कथा 12 - Katha 12

 वैशाखमास शुक्लपक्षकी 'मोहिनी'

एकादशीका माहात्म्य

युधिष्ठिरने पूछा- जनार्दन! वैशाखमासके शुक्लपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है ? उसका क्या फल होता है ? तथा उसके लिये कौन-सी विधि है ?

भगवान् श्रीकृष्ण बोले—महाराज ! पूर्वकालमें परम बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजीने महर्षि वसिष्ठसे यही बात पूछी थी, जिसे आज तुम मुझसे पूछ रहे हो ।

श्रीरामने कहा- भगवन्! जो समस्त पापोंका क्षय तथा सब

प्रकारके दुःखोंका निवारण करनेवाला व्रतोंमें उत्तम व्रत हो, उसेसुनना चाहता हूँ ।

वसिष्ठजी बोले – श्रीराम! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है। मनुष्य तुम्हारा नाम लेनेसे ही सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है। तथापि लोगोंके हितकी इच्छासे मैं पवित्रोंमें पवित्र उत्तम व्रतका वर्णन करूँगा। वैशाखमास के शुक्लपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका नाम मोहिनी है। वह सब पापको हरनेवाली और उत्तम है। उस व्रतके प्रभावसे मनुष्य मोहजाल तथा पातक समूहसे छुटकारा पा जाते हैं।


सरस्वती नदीके रमणीय तटपर भद्रावती नामकी सुन्दर नगरी है। वहाँ धृतिमान् नामक राजा, जो चन्द्रवंशमें उत्पन्न और सत्यप्रतिज्ञ थे, राज्य करते थे। उसी नगरमें एक वैश्य रहता था, जो धन धान्यसे परिपूर्ण और समृद्धिशाली था। उसका नाम था धनपाल वह सदा पुण्यकर्ममें ही लगा रहता था दूसरोंके लिये पाँसला, कुआँ, मठ, बगीचा, पोखरा और घर बनवाया करता था। भगवान् श्रीविष्णुकी भक्तिमें उसका हार्दिक अनुराग था। वह सदा शान्त रहता था। उसके पाँच पुत्र थे- सुमना, द्युतिमान्, मेधावी, सुकृत तथा धृष्टबुद्धि । धृष्टबुद्धि पाँचवाँ था। वह सदा बड़े-बड़े पापोंमें ही संलग्न रहता था। जुए आदि दुर्व्यसनोंमें उसकी बड़ी आसक्ति थी। वह वेश्याओंसे मिलनेके लिये लालायित रहता था। उसकी बुद्धि न तो देवताओंके पूजनमें लगती थी और न पितरों तथा ब्राह्मणोंके सत्कारमें। वह दुष्टात्मा अन्यायके मार्गपर चलकर पिताका धन बरबाद किया करता था। एक दिन वह वेश्याके गलेमें बाँह डाले चौराहेपर घूमता देखा गया। तब पिताने उसे घरसे निकाल दिया तथा बन्धु-बान्धवोंने भी उसका परित्याग कर दिया। अब वह दिन रात दुःख और शोकमें डूबा तथा कष्ट-पर-कष्ट उठाता हुआ इधर-उधर भटकने लगा। एक दिन किसी पुण्यके उदय होनेसे वह महर्षि कौण्डिन्यके आश्रमपर जा पहुँचा। वैशाखका महीना था। तपोधन कौण्डिन्य गंगाजीमें स्नान करके आये थे । धृष्टबुद्धि शोकके भारसे पीड़ित हो मुनिवर कौण्डिन्यके पास गया और हाथ जोड़ सामने खड़ा होकर बोला- 'ब्रह्मन् ! द्विजश्रेष्ठ ! मुझपर दया करके कोई ऐसा व्रत बताइये, जिसके पुण्यके प्रभावसे मेरी मुक्ति हो ।' कौण्डिन्य बोले- वैशाखके शुक्लपक्षमें मोहिनी नामसे प्रसिद्ध एकादशीका व्रत करो। मोहिनीको उपवास करनेपर प्राणियोंके अनेक जन्मोंके किये हुए मेरुपर्वत-जैसे महापाप भी नष्ट हो जाते हैं।


वसिष्ठजी कहते हैं- श्रीरामचन्द्र ! मुनिका यह वचन सुनकर धृष्टबुद्धिका चित्त प्रसन्न हो गया। उसने कौण्डिन्यके उपदेशसे विधिपूर्वक मोहिनी एकादशीका व्रत किया। नृपश्रेष्ठ! इस व्रतके करनेसे वह निष्पाप हो गया और दिव्य देह धारणकर गरुड़पर आरूढ़ हो सब प्रकारके उपद्रवोंसे रहित श्रीविष्णुधामको चला गया। इस प्रकार यह मोहिनीका व्रत बहुत उत्तम है। इसके पढ़ने और सुननेसे सहस्त्र गोदानका फल मिलता है।

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