Ekadashi Vrat Katha (Ekadasi Katha) कथा 14 - Katha 14

 ज्येष्ठमास शुक्लपक्षकी 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य


युधिष्ठिरने कहा- जनार्दन! 'अपरा' का सारा माहात्म्य मैंने सुन लिया, अब ज्येष्ठ शुक्लपक्षमें जो एकादशी हो उसका वर्णन कीजिये।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले राजन्! इसका वर्णन परम धर्मात्मा सत्यवतीनन्दन व्यासजी करेंगे; क्योंकि ये सम्पूर्ण शास्त्रोंके तत्त्वज्ञ और वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान् हैं ।


तब वेदव्यासजी कहने लगे दोनों ही पक्षोंकी एकादशियोंको भोजन न करे। द्वादशीको स्नान आदिसे पवित्र हो फूलोंसे भगवान् केशवकी पूजा करके नित्यकर्म समाप्त होनेके पश्चात् पहले ब्राह्मणोंको भोजन देकर अन्तमें स्वयं भोजन करे। राजन् ! | जननाशौच और मरणाशौचमें भी एकादशीको भोजन नहीं करना चाहिये


यह सुनकर भीमसेन बोले- परम बुद्धिमान् पितामह! मेरी उत्तम बात सुनिये। राजा युधिष्ठिर, माता कुन्ती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव – ये एकादशीको कभी भोजन नहीं करते तथा मुझसे भी हमेशा यही कहते हैं कि 'भीमसेन ! तुम भी एकादशीको न खाया करो।' किन्तु मैं इन लोगोंसे यही कह दिया करता हूँ कि 'मुझसे भूख नहीं सही जायगी।'


भीमसेनकी बात सुनकर व्यासजीने कहा- यदि तुम्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति अभीष्ट है और नरकको दूषित समझते हो तो दोनों पक्षों की एकादशीको भोजन न करना ।

भीमसेन बोले- महाबुद्धिमान् पितामह! मैं आपके सामने सच्ची बात कहता हूँ, एक बार भोजन करके भी मुझसे व्रत नहीं किया जा सकता। फिर उपवास करके तो मैं रह ही कैसे सकता हूँ। मेरे उदरमें वृक नामक अग्नि सदा प्रज्वलित रहती है; अतः जब मैं बहुत अधिक खाता हूँ, तभी यह शान्त होती है। इसलिये महामुने! मैं वर्षभरमें केवल एक ही उपवास कर सकता हूँ; जिससे स्वर्गकी प्राप्ति सुलभ हो तथा जिसके करनेसे मैं कल्याणका भागी हो सकूँ, ऐसा कोई एक व्रत निश्चय करके बताइये। मैं उसका यथोचितरूपसे पालन करूँगा।


व्यासजीने कहा- भीम! ज्येष्ठमासमें सूर्य वृषराशिपर हों या मिथुनराशिपर; शुक्लपक्षमें जो एकादशी हो, उसका यत्नपूर्वक निर्जल व्रत करो। केवल कुल्ला या आचमन करनेके लिये मुखमें जल डाल सकते हो, उसको छोड़कर और किसी प्रकारका जल विद्वान् पुरुष मुखमें न डाले, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है। एकादशीको सूर्योदयसे लेकर दूसरे दिनके सूर्योदयतक मनुष्य जलका त्याग करे तो यह व्रत पूर्ण होता है । तदनन्तर द्वादशीको निर्मल प्रभातकालमें स्नान करके ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक जल और सुवर्णका दान करे। इस प्रकार सब कार्य पूरा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राह्मणोंके साथ भोजन करे। वर्षभरमें जितनी एकादशियाँ होती हैं, उन सबका फल निर्जला एकादशीके सेवनसे मनुष्य प्राप्त कर लेता है; इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् केशवने मुझसे कहा था कि 'यदि | मानव सबको छोड़कर एकमात्र मेरी शरणमें आ जाय और एकादशीको निराहार रहे तो वह सब पापोंसे छूट जाता है।'

एकादशीव्रत करनेवाले पुरुषके पास विशालकाय, विकराल आकृति और काले रंगवाले दण्ड-पाशधारी भयंकर यमदूत नहीं जाते । अन्तकालमें पीताम्बरधारी, सौम्य स्वभाववाले, हाथमें सुदर्शन धारण करनेवाले और मनके समान वेगशाली विष्णुदूत आकर इस वैष्णव पुरुषको भगवान् विष्णुके धाममें ले जाते हैं । अतः निर्जला एकादशीको पूर्ण यत्न करके उपवास करना चाहिये। तुम भी सब पापोंकी शान्तिके लिये यत्नके साथ उपवास और श्रीहरिका पूजन करो। स्त्री हो या पुरुष, यदि उसने मेरु पर्वतके बराबर भी महान् पाप किया हो तो वह सब एकादशीके प्रभावसे भस्म हो जाता है। जो मनुष्य उस दिन जलके नियमका पालन करता है, वह पुण्यका भागी होता है, उसे एक-एक पहरमें कोटि-कोटि स्वर्णमुद्रा दान करनेका फल प्राप्त होता सुना गया है। मनुष्य निर्जला एकादशीके दिन स्नान, दान, जप, होम आदि जो कुछ भी करता है, वह सब अक्षय होता है, यह भगवान् श्रीकृष्णका कथन है। निर्जला एकादशीको विधिपूर्वक उत्तम रीतिसे उपवास करके मानव वैष्णवपदको प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य एकादशीके दिन अन्न खाता है, वह पाप भोजन करता है। इस लोकमें वह चाण्डालके समान है और मरनेपर दुर्गतिको प्राप्त होता है। *


जो ज्येष्ठ शुक्लपक्षमें एकादशीको उपवास करके दान देंगे, वे परमपदको प्राप्त होंगे। जिन्होंने एकादशीको उपवास किया हैं, वे ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा गुरुद्रोही होनेपर भी सब पातकोंसे मुक्त हो जाते हैं। कुन्तीनन्दन ! निर्जला एकादशीके दिन श्रद्धालु स्त्री-पुरुषोंके लिये जो विशेष दान और कर्तव्य विहित है, उसे सुनो – उस दिन जलमें शयन करनेवाले भगवान् विष्णुका पूजन और जलमयी धेनुका दान करना चाहिये । अथवा प्रत्यक्ष धेनु या घृतमयी धेनुका दान उचित है। पर्याप्त दक्षिणा और भाँति-भाँतिके मिष्ठान्नोंद्वारा यत्नपूर्वक ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट करना चाहिये। ऐसा करनेसे ब्राह्मण अवश्य सन्तुष्ट होते हैं और उनके सन्तुष्ट होनेपर श्रीहरि मोक्ष प्रदान करते हैं। जिन्होंने शम, दम और दानमें प्रवृत्त हो श्रीहरिकी पूजा और रात्रिमें जागरण करते हुए इस निर्जला एकादशीका व्रत किया है, उन्होंने अपने साथ ही बीती हुई सौ पीढ़ियोंको और आनेवाली सौ पीढ़ियोंको भगवान् वासुदेवके परम धाममें पहुँचा दिया है। निर्जला एकादशीके दिन अन्न, वस्त्र, गौ, जल, शय्या, सुन्दर आसन, कमण्डलु तथा छाता दान करने चाहिये। * जो श्रेष्ठ एवं सुपात्र ब्राह्मणको जूता दान करता है, वह सोनेके विमानपर बैठकर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। जो इस एकादशीकी महिमाको भक्तिपूर्वक सुनता तथा जो भक्तिपूर्वक उसका वर्णन करता है, वे दोनों स्वर्गलोकमें जाते हैं। चतुर्दशीयुक्त अमावास्याको सूर्यग्रहणके समय श्राद्ध करके मनुष्य जिस फलको प्राप्त करता है, वही इसके श्रवणसे भी प्राप्त होता है। पहले दन्तधावन करके यह नियम लेना चाहिये कि 'मैं भगवान् केशवकी प्रसन्नताके लिये एकादशीको निराहार रहकर आचमनके सिवा दूसरे जलका भी त्याग करूँगा।' द्वादशीको देवदेवेश्वर भगवान् विष्णुका पूजन करना चाहिये । गन्ध, धूप,पुष्प "और सुन्दर वस्त्रसे विधिपूर्वक पूजन करके जलका घड़ा संकल्प करते हुए निम्नांकित मन्त्रका उच्चारण करे । देवदेव हृषीकेश संसारार्णवतारक।


उदकुम्भप्रदानेन नय मां परमां गतिम् ॥ ( 53।60) 'संसारसागरसे तारनेवाले देवदेव हृषीकेश! इस जलके घड़ेका दान करनेसे आप मुझे परम गतिकी प्राप्ति कराइये।'


भीमसेन! ज्येष्ठमासमें शुक्लपक्षकी जो शुभ एकादशी होती है, उसका निर्जल व्रत करना चाहिये तथा उस दिन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको शक्करके साथ जलके घड़े दान करने चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्य भगवान् विष्णुके समीप पहुँचकर आनन्दका अनुभव करता है । तत्पश्चात् द्वादशीको ब्राह्मणभोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करे। जो इस प्रकार पूर्णरूपसे पापनाशिनी एकादशीका व्रत करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो अनामय पदको प्राप्त होता है।


यह सुनकर भीमसेनने भी इस शुभ एकादशीका व्रत आरम्भ कर दिया। तबसे यह लोकमें 'पाण्डव-द्वादशी' के नामसे विख्यात हुई।

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