Ekadashi Vrat Katha (Ekadasi Katha) कथा 7 - Katha 7

 फाल्गुनमास कृष्णपक्षकी 'विजया' एकादशीका माहात्म्य


युधिष्ठिरने पूछा- वासुदेव! फाल्गुनके कृष्णपक्षमें किस | नामकी एकादशी होती है ? कृपा करके बताइये ।भगवान् श्रीकृष्ण बोले- युधिष्ठिर! एक बार नारदजीने कमलके आसनपर विराजमान होनेवाले ब्रह्माजीसे प्रश्न किया 'सुरश्रेष्ठ! फाल्गुनके कृष्णपक्षमें जो 'विजया' नामकी एकादशी होती है, कृपया उसके पुण्यका वर्णन कीजिये।'


ब्रह्माजीने कहा- नारद! सुनो-'मैं एक उत्तम कथा सुनाता हूँ, जो पापोंका अपहरण करनेवाली है। यह व्रत बहुत ही प्राचीन, पवित्र और पापनाशक है। यह 'विजया' नामकी एकादशी राजाओंको विजय प्रदान करती है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। पूर्वकालकी बात है, भगवान् श्रीरामचन्द्रजी चौदह वर्षोंके लिये वनमें गये और वहाँ पंचवटीमें सीता तथा लक्ष्मणके साथ रहने लगे। वहाँ रहते समय रावणने चपलतावश विजयात्मा श्रीरामकी तपस्विनी पत्नी सीताको हर लिया। उस दुःखसे श्रीराम व्याकुल हो उठे। उस समय सीताकी खोज करते हुए वे वनमें घूमने लगे। कुछ दूर जानेपर उन्हें जटायु मिले, जिनकी आयु समाप्त हो चुकी थी । इसके बाद उन्होंने वनके भीतर कबन्ध नामक राक्षसका वध किया। फिर सुग्रीवके साथ उनकी मित्रता हुई। तत्पश्चात् श्रीरामके लिये वानरोंकी सेना एकत्रित हुई । हनुमान्जीने लंकाके उद्यानमें जाकर सीताजीका दर्शन किया और उन्हें श्रीरामकी चिह्नस्वरूप मुद्रिका प्रदान की। यह उन्होंने महान् पुरुषार्थका काम किया था। वहाँसे लौटकर वे श्रीरामचन्द्रजीसे मिले और लंकाका सारा समाचार उनसे निवेदन किया। हनुमान्जीकी बात सुनकर श्रीरामने सुग्रीवकी अनुमति ले लंकाको प्रस्थान करनेका विचार किया और समुद्रके किनारे पहुँचकर उन्होंने लक्ष्मणसे कहा-' 'सुमित्रानन्दन! किस पुण्यसे इस समुद्रको पार किया जा सकता है ? यह अत्यन्त अगाध और भयंकर जल -जन्तुओंसे भरा हुआ है। मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता, जिससे इसको सुगमतासे पार किया जा सके।' लक्ष्मण बोले—महाराज! आप ही आदिदेव और पुराणपुरुष पुरुषोत्तम हैं। आपसे क्या छिपा है ? यहाँ द्वीपके भीतर बकदाल्भ्य नामक मुनि रहते हैं । यहाँसे आधे योजनकी दूरीपर उनका आश्रम है । रघुनन्दन ! उन प्राचीन मुनीश्वरके पास जाकर उन्हींसे इसका उपाय पूछिये ।


लक्ष्मणकी यह अत्यन्त सुन्दर बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजी महामुनि बकदाल्भ्यसे मिलनेके लिये गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने मस्तक झुकाकर मुनिको प्रणाम किया। मुनि उनको देखते ही पहचान गये कि ये पुराणपुरुषोत्तम श्रीराम हैं, जो किसी कारणवश मानव-शरीरमें अवतीर्ण हुए हैं। उनके आनेसे महर्षिको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने पूछा- 'श्रीराम ! आपका कैसे यहाँ आगमन हुआ ?'

श्रीराम बोले- ब्रह्मन्! आपकी कृपासे राक्षसोंसहित लंकाको जीतनेके लिये सेनाके साथ समुद्र के किनारे आया हूँ। मुने! अब जिस प्रकार समुद्र पार किया जा सके, वह उपाय बताइये। मुझपर कृपा कीजिये। बकदाल्भ्यने कहा— श्रीराम ! फाल्गुनके कृष्णपक्षमें जो 'विजया' नामकी एकादशी होती है, उसका व्रत करनेसे आपकी विजय होगी। निश्चय ही आप अपनी वानरसेनाके साथ समुद्रको पार कर लेंगे। राजन्! अब इस व्रतकी फलदायक विधि सुनिये। दशमीका दिन आनेपर एक कलश स्थापित करे। वह सोने, चाँदी, ताँबे अथवा मिट्टीका भी हो सकता है। उस कलशको जलसे भरकर उसमें पल्लव डाल दे। उसके ऊपर भगवान् नारायणके सुवर्णमय विग्रहकी स्थापना करे फिर एकादशीके दिन प्रातःकाल स्नान करे। कलशको पुनः | स्थिरतापूर्वक स्थापित करे। माला, चन्दन, सुपारी तथा नारियल आदिके द्वारा विशेषरूपसे उसका पूजन करे। कलशके ऊपर सप्तधान्य और जौ रखे। गन्ध, धूप, दीप और भाँति-भाँति के नैवेद्यसे पूजन करे। कलशके सामने बैठकर वह सारा दिन उत्तम कथा-वार्ता आदिके द्वारा व्यतीत करे तथा रातमें भी वहाँ जागरण करे। अखण्ड व्रतकी सिद्धिके लिये घीका दीपक जलाये। फिर द्वादशीके दिन सूर्योदय होनेपर उस कलशको किसी जलाशयके समीप नदी, झरने या पोखरेके तटपर ले जाकर स्थापित करे और उसकी विधिवत् पूजा करके देव-प्रतिमासहित उस कलशको वेदवेत्ता ब्राह्मणके लिये दान कर दे। महाराज! कलशके साथ ही और भी बड़े-बड़े दान देने चाहिये। श्रीराम! आप अपने यूथपतियों के साथ इसी विधिसे प्रयत्नपूर्वक 'विजया' का व्रत कीजिये। इससे आपकी विजय होगी।


ब्रह्माजी कहते हैं – नारद ! यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने मुनिके कथनानुसार उस समय 'विजया' एकादशीका व्रत किया। उस व्रतके करनेसे श्रीरामचन्द्रजी विजयी हुए। उन्होंने संग्राम में रावणको मारा, लंकापर विजय पायी और सीताको प्राप्त किया। बेटा! जो मनुष्य इस विधिसे व्रत करते हैं, उन्हें इस लोकमें विजय प्राप्त होती है और उनका परलोक भी अक्षय बना रहता है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-युधिष्ठिर! इस कारण 'विजया' का व्रत करना चाहिये। इस प्रसंगको पढ़ने और सुननेसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है।

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