तलब की आग किसी शोला-रू से रौशन है / 'क़ाबिल' अजमेरी

तलब की आग किसी शोला-रू से रौशन है
खयाल हो के नज़र आरजू से रौशन है

जनम-जनम के अँधेरों को दे रहा है शिकस्त
वो इक चराग के अपने लहू से रौशन है

कहीं हुजूम-ए-हवादिस में खो के रह जाता
जमाल-ए-यार मेरी जुस्तुजू से रौशन है

ये ताबिश-ए-लब-ए-लालीं ये शोला-ए-आवाज़
तमाम बज़्म तेरी गुफ्तुगू से रौशन है

विसाल-ए-यार तो मुमकीन नहीं मगर नासेह
रूख-ए-हयात इसी आरजू से रौशन है

श्रेणी: ग़ज़ल

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