तजल्ली गर तेरी पस्त ओ बुलंद उन को दिखलाती / 'मज़हर' मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ

तजल्ली गर तेरी पस्त ओ बुलंद उन को दिखलाती
फ़लक यूँ चर्ख़ क्यूँ खाता ज़मीं क्यूँ फर्श हो जाती

हिना तेरे कफ़-ए-पा को उन शोख़ी से सहलाती
ये आँखें क्यूँ लहू रोतीं उन्हों की नींद क्यूँ जाती

अगर ये सर्द-मेहरी तुज को आसाइश न सिखलाती
तो क्यूँकर आफ़ताब-ए-हुस्न की गर्मी में नींद आती

इलाही दर्द-ए-ग़म की सर-जमीं का हाल क्या होता
मोहब्बत गर हमारी चश्‍म-ए-तर से मेंह न बरसाती

श्रेणी: ग़ज़ल

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