नूर-ए-मह को शब तह-ए-अब्र-ए-तुनक क्या लाफ़ था / 'ममनून' निज़ामुद्दीन
नूर-ए-मह को शब तह-ए-अब्र-ए-तुनक क्या लाफ़ था
बाल उस मुखड़े से उठ जाते तो मतला साफ़ था
साफ़ी दिल-ग़ज़ंद की क्या थी दम-ए-बोस-ओ-किनार
बोसे को मुश्किल ठकरना सीने से ता नाफ़ था
इक निगाह का दूर से भी आज कल महरूम है
दिल कि तेरा मुद्दतों ख़ू-कर्दा-ए-अल्ताफ़ था
हो दर-ए-मै-ख़ाना पर बे-दुख़्त-ए-रज़ बैठे हुए
हज़रत-ए-‘ममनूँ’ यही क्या शेवा-ए-अशराफ़ था
श्रेणी: ग़ज़ल
बाल उस मुखड़े से उठ जाते तो मतला साफ़ था
साफ़ी दिल-ग़ज़ंद की क्या थी दम-ए-बोस-ओ-किनार
बोसे को मुश्किल ठकरना सीने से ता नाफ़ था
इक निगाह का दूर से भी आज कल महरूम है
दिल कि तेरा मुद्दतों ख़ू-कर्दा-ए-अल्ताफ़ था
हो दर-ए-मै-ख़ाना पर बे-दुख़्त-ए-रज़ बैठे हुए
हज़रत-ए-‘ममनूँ’ यही क्या शेवा-ए-अशराफ़ था
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