सज्दे जबीन-ए-शौक़ के अब राएगाँ नहीं / 'मख़मूर' जालंधरी

सज्दे जबीन-ए-शौक़ के अब राएगाँ नहीं
तू बे-हिजाब अंजुमन-आरा कहाँ नहीं

मैं मीर-ए-कारवाँ हूँ पस-ए-कारवाँ नहीं
हाथों में मेरे दामन-ए-मंज़िल कहाँ नहीं

मौजूदगी-ए-जन्नत-ओ-दोज़ख से है अयाँ
रहमत है एक बहर मगर बे-कराँ नहीं

चाहे हिजाब में रहो तो चाहे बे-हिजाब
हम तुम ही तो हैं और कोई दरमियाँ नहीं

बर्क़-ए-जमाल-ए-दोस्त न हो इस पे शौला जन
तेरा भी घर है सिर्फ़ मेरा आशियाँ नहीं

दिल-चस्पियाँ बहुत सी हैं इस इख़्तिसार में
कुछ ग़म नहीं शबाब अगर जावेदाँ नहीं

साकित फ़लक को मुफ़्त में ज़ालिम बना दिया
गर्दिश में है ज़मीन फ़क़त आसमाँ नहीं

नाम-काम-तर हैं मेरी शिकस्ता-नसीबियाँ
‘मख़मूर’ सिर्फ़ ज़ीस्त ही ना-कामराँ नहीं

श्रेणी: ग़ज़ल

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