फटा पड़ता है जौबन और जोश-ए-नौ-जवानी है / 'ज़हीर' देहलवी

फटा पड़ता है जौबन और जोश-ए-नौ-जवानी है
वो अब तो ख़ुद-ब-ख़ुद जामे से बाहर होते जाते हैं

नज़र होती है जितनी उन को अपने हुस्न-ए-सूरत पर
सितम-गर बे-मुरव्वत कीना-परवर होते जाते हैं

भला इस हुस्न-ए-ज़ेबाई का उन के क्या ठिकाना है
के जितने ऐब हैं दुनिया में ज़ेवर होते जाते हैं

अभी है ताज़ा ताज़ा शौक़-ए-ख़ुद-बीनी अभी क्या है
अभी वो ख़ैर से निख़वत के ख़ू-गर होते जाते हैं

वो यूँ भी माह-ए-तलअत हैं मगर शोख़ी क़यामत है
के जितने बद-मज़ा होते हैं ख़ुश-तर होते जाते हैं

श्रेणी: ग़ज़ल

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