बे-ताब रहें हिज्र में कुछ दिल तो नहीं हम / 'बेख़ुद' देहलवी

बे-ताब रहें हिज्र में कुछ दिल तो नहीं हम
तड़पें जो तुझे देख के बिस्मिल तो नहीं हम

हैं याद बहुत मक्र ओ फ़रेब ऐसे हमें भी
मुट्ठी में जो आ जाएँ तेरी दिल तो नहीं हम

अब आप कोई काम सिखा दीजिए हम को
मालूम हुआ इश्‍क़ के क़ाबिल तो नहीं हम

कहने को वफ़ा-दार तुम्हें लाख में कह दें
दिल से मगर इस बात के क़ाइल तो नहीं हम

क्यूँ ख़िज्र के पैरौं होतेरी राह-ए-तलब में
आवारा ओ गुम-कर्दा-ए-मंज़िल तो नहीं हम

कहते हैं तमन्ना-ए-शहादत को वो सुन कर
क्यूँ क़त्ल करें आप को क़ातिल तो नहीं हम

हैं दिल में अगर तालिब-ए-दीदार तुम्हें क्या
कुछ तुम से किसी बात के साइल तो नहीं हम

वो पूछते हैं मुझ से ये मज़मूँ तो नया है
तेरी ही तरह से कहीं बे-दिल तो नहीं हम

हम जाते हैं या हज़रत-ए-दिल आप सिधारें
जाएंगे अब उस बज़्म में शामिल तो नहीं हम

इन आँखों से हम ने भी तो देखा है ज़माना
हम से न कहो ग़ैर पे माइल तो नहीं हम

मरने के लिए वक़्त कोई ताक रहे हैं
इस काम को समझे अभी मुश्‍किल तो नहीं हम

कहते हैं तुझे देख के आता है हमें रश्‍क
बैठे हुए दुश्‍मन के मुक़ाबिल तो नहीं हम

हर साँस में रहता है तेरी याद का खटका
‘बे-ख़ुद’ हैं तो हों काम से ग़ाफिल तो नहीं हम

श्रेणी: ग़ज़ल

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