पाबंद-ए-एहतियात-ए-वफ़ा भी न हो सके / 'मख़मूर' जालंधरी

पाबंद-ए-एहतियात-ए-वफ़ा भी न हो सके
हम क़ैद-ए-ज़ब्त-ए-ग़म से रिहा भी न हो सके

दार-ओ-मदार-ए-इश्‍क़ वफ़ा पर है हम-नशीं
वो क्या करे के जिस से वफ़ा भी न हो सके

गो उम्र भर न मिल सके आपस में एक बार
हम एक दूसरे से जुदा भी न हो सके

जब जुज़्व की सिफ़ात में कुल की सिफ़ात हैं
फिर वो बशर ही क्या जो ख़ुदा भी न हो सके

ये फैज़-ए-इश्‍क था के हुई हर ख़ता मुआफ़
वो ख़ुश न हो सके तो खफ़ा भी न हो सके

वो आस्तान-ए-दोस्त पे क्या सर झुकाएगा
जिस से बुलंद दस्त-ए-दुआ भी न हो सके

ये एहतिराम था निगाह-ए-शौक़ का जो तुम
बे-पर्दा हो सके जलवा-नुमा भी न हो सके

‘मख़मूर’ कुछ न पूछिए मजबूरी-ए-हयात
अच्छी तरह ख़राब-ए-फ़ना भी न हो सके

श्रेणी: ग़ज़ल

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