अब तो उकता ये गए बहार-ए-सफ़र हम भी चलें / 'महशर' इनायती

अब तो उकता ये गए बहार-ए-सफ़र हम भी चलें
किस तरफ़ जाओगे अरबाब-ए-हुनर हम भी चलें

क़ाफ़िले कल के हमें भी न कहें राह-नुमा
ग़ैर-मालूम सी राहों पे अगर हम भी चलें

किस तरफ़ शाम ओ सहर जाते हैं ये शहर के लोग
किस क़दर शौक़ से जाते हैं उधर हम भी चलें

सुनते हैं भरते नहीं ज़ख़्म छुपे तीरों के
सुब्ह को उठ के किसी दोस्त के घर हम भी चलें

हद नज़र की है के बढ़ती ही चली जाती है
हम ने सोचा था के ता हद्द-ए-नज़र हम भी चलें

शाम को सो के जहाँ सुब्ह को लोग उठते हैं
तुम को मालूम है ‘महशर’ वो नगर हम भी चलें

श्रेणी: ग़ज़ल

Comments

Popular posts from this blog

मंगलेश डबराल की लोकप्रिय कविताएं Popular Poems of Manglesh Dabral

Ye Naina Ye Kajal / ये नैना, ये काजल, ये ज़ुल्फ़ें, ये आँचल

Mira Bai Ke Pad Arth Vyakhya मीराबाई के पद अर्थ सहित