उस गुल को भेजना है मुझे ख़त सबा के हाथ / 'मज़हर' मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ

उस गुल को भेजना है मुझे ख़त सबा के हाथ
इस वास्ते लगा हूँ चमन की हवा के हाथ

बर्ग-ए-हिना ऊपर लिखो अहवाल-ए-दिल मेरा
शायद के जा लगे वो किसी मीरज़ा के हाथ

आज़ाद हो रहा हूँ दो आलम की क़ैद से
मीना लगा है जब से कि कुछ बे-नवा के हाथ

मरता हूँ मीरज़ाइ-ए-गुल देख हर सहर
सूरज के हाथ चुनरी तो पँखा सबा के हाथ

‘मज़हर’ छुपा के रख दिल-ए-नाज़ुक को अपने तू
ये शीशा बेचना है किसी मीरज़ा के हाथ

श्रेणी: ग़ज़ल

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