बिठाई जाएंगी पर्दे में बीबियाँ कब तक / अकबर इलाहाबादी

बिठाई जाएंगी परदे में बीबियाँ कब तक
बने रहोगे तुम इस मुल्क में मियाँ कब तक

हरम-सरा की हिफ़ाज़त को तेग़ ही न रही
तो काम देंगी यह चिलमन की तितलियाँ कब तक

मियाँ से बीबी हैं, परदा है उनको फ़र्ज़ मगर
मियाँ का इल्म ही उट्ठा तो फिर मियाँ कब तक

तबीयतों का नमू है हवाए-मग़रिब में
यह ग़ैरतें, यह हरारत, यह गर्मियाँ कब तक

अवाम बांध ले दोहर को थर्ड-वो-इंटर में
सिकण्ड-ओ-फ़र्स्ट की हों बन्द खिड़कियाँ कब तक

जो मुँह दिखाई की रस्मों पे है मुसिर इब्लीस
छुपेंगी हज़रते हव्वा की बेटियाँ कब तक

जनाबे हज़रते 'अकबर' हैं हामिए-पर्दा
मगर वह कब तक और उनकी रुबाइयाँ कब तक

शब्दार्थ :
हरम-सरा= भवन का वह भाग जहाँ स्त्रियाँ रहती हैं;
तेग़= तलवार;
नमू=उठान;
मग़रिब=पश्चिम;
ग़ैरत= हयादारी;
हरारत= गर्मी;
अवाम= जनता;
मुसिर= ज़िद्द करना
हामिए-पर्दा= पर्दे का समर्थन करने वाला
 

श्रेणी: ग़ज़ल

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