जिस्म पर बाक़ी ये सर है क्या करूँ / 'कैफ़' भोपाली
जिस्म पर बाक़ी ये सर है क्या करूँ
दस्त-ए-क़ातिल बे-हुनर है क्या करूँ
चाहता हूँ फूँक दूँ इस शहर को
शहर में इन का भी घर है क्या करूँ
वो तो सौ सौ मर्तबा चाहें मुझे
मेरी चाहत में कसर है क्या करूँ
पाँव में ज़ंजीर काँटे आबले
और फिर हुक्म-ए-सफ़र है क्या करूँ
‘कैफ़’ का दिल ‘कैफ़’ का दिल है मगर
वो नज़र फिर वो नज़र है क्या करूँ
‘कैफ़’ में हूँ एक नूरानी किताब
पढ़ने वाला कम-नज़र है क्या करूँ
श्रेणी: ग़ज़ल
दस्त-ए-क़ातिल बे-हुनर है क्या करूँ
चाहता हूँ फूँक दूँ इस शहर को
शहर में इन का भी घर है क्या करूँ
वो तो सौ सौ मर्तबा चाहें मुझे
मेरी चाहत में कसर है क्या करूँ
पाँव में ज़ंजीर काँटे आबले
और फिर हुक्म-ए-सफ़र है क्या करूँ
‘कैफ़’ का दिल ‘कैफ़’ का दिल है मगर
वो नज़र फिर वो नज़र है क्या करूँ
‘कैफ़’ में हूँ एक नूरानी किताब
पढ़ने वाला कम-नज़र है क्या करूँ
श्रेणी: ग़ज़ल
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