फ़िक्र-ए-तजदीद-ए-रवायात-ए-कुहन आज भी है / 'महशर' इनायती

फ़िक्र-ए-तजदीद-ए-रवायात-ए-कुहन आज भी है
हक़-बयानी का सिला दार ओ रसन आज भी है

पासबानान-ए-चमन की रविश-ए-कोराना
वजह-ए-रूसवाई-ए-आईं-ए-चमन आज भी है

मय-ए-पिंदार के दो घूँट की बर्दाश्‍त किसे
था जो पहले वो बहकने का चलन आज भी है

रह-नुमा हैं के सर-ए-राह अड़े बैठे हैं
कारवाँ है के सज़ा-वार-ए-महन आज भी है

वक़्त के नब्ज़-शनासों से कहो तेज़ चलें
ख़ुद-फ़रेबों की जबीनों पे शिकन आज भी है

कर चुका है जो हर इक दौर में तिर्याक़ का काम
मेरे साग़र में वही ज़हर-ए-सुख़न आज भी है

वही ‘महशर’ जो निगाहों में खटकता ही रहा
अपनी बेबाक-बयानी पे मगन आज भी है

श्रेणी: ग़ज़ल

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