इस से आगे तो बस ला-मकाँ रह गया / अंजुम सलीमी
इस से आगे तो बस ला-मकाँ रह गया
ये सफ़र भी मेरा राएगाँ रह गया
हो गए अपने जिस्मों से भी बे-नियाज़
और फिर भी कोई दरमियाँ रह गया
राख पोरों से झड़ती गई उम्र की
साँस की नालियों में धुआँ रह गया
अब तो रस्ता बताने पे मामूर हूँ
बे-हदफ़ तीर था बे-कमाँ रह गया
जब पलट ही चले हो ऐ दीदा-ए-वरो
मुझ को भी देखना मैं कहाँ रह गया
मिट गया हूँ किसी और की क़ब्र में
मेरा कतबा कहीं बे-निशाँ रह गया
श्रेणी: ग़ज़ल
ये सफ़र भी मेरा राएगाँ रह गया
हो गए अपने जिस्मों से भी बे-नियाज़
और फिर भी कोई दरमियाँ रह गया
राख पोरों से झड़ती गई उम्र की
साँस की नालियों में धुआँ रह गया
अब तो रस्ता बताने पे मामूर हूँ
बे-हदफ़ तीर था बे-कमाँ रह गया
जब पलट ही चले हो ऐ दीदा-ए-वरो
मुझ को भी देखना मैं कहाँ रह गया
मिट गया हूँ किसी और की क़ब्र में
मेरा कतबा कहीं बे-निशाँ रह गया
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